इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्त म् । अपनेमें अत्यन्त अविचलता द्वारा उत्तम शीलका मूल है, उस भवभयको हरनेवाले मोक्षलक्ष्मीके ऐश्वर्यवान स्वामीको मैं वन्दन करता हूँ ।६९।
गाथा : ४५-४६ अन्वयार्थ : — [वर्णरसगंधस्पर्शाः ] वर्ण - रस - गंध - स्पर्श, [स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः ] स्त्री - पुरुष - नपुंसकादि पर्यायें, [संस्थानानि ] संस्थान और [संहननानि ] संहनन — [सर्वे ] यह सब [जीवस्य ] जीवको [नो सन्ति ] नहीं हैं ।
[जीवम् ] जीवको [अरसम् ] अरस, [अरूपम् ] अरूप, [अगंधम् ] अगंध, [अव्यक्तम् ] अव्यक्त, [चेतनागुणम् ] चेतनागुणवाला, [अशब्दम् ] अशब्द, [अलिंगग्रहणम् ] अलिंगग्रहण (लिंगसे अग्राह्य) और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसे कोई संस्थान नहीं कहा है ऐसा [जानीहि ] जान ।
टीका : — यहाँ (इन दो गाथाओंमें) परमस्वभावभूत ऐसा जो कारणपरमात्माका स्वरूप उसे समस्त पौद्गलिक विकारसमूह नहीं है ऐसा कहा है ।