असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा ।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ।।४८।।
अशरीरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः ।
यथा लोकाग्रे सिद्धास्तथा जीवाः संसृतौ ज्ञेयाः ।।४८।।
अयं च कार्यकारणसमयसारयोर्विशेषाभावोपन्यासः ।
निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकादिपर्यायपरित्याग-
स्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितसहजदर्शनादिकारणशुद्धस्वरूपपरिच्छित्ति-
समर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादि-
विभावस्वभावानामभावान्निर्मलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्रे भगवन्तः
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ १०१
गाथा : ४८ अन्वयार्थ : — [यथा ] जिसप्रकार [लोकाग्रे ] लोकाग्रमें
[सिद्धाः ] सिद्धभगवन्त [अशरीराः ] अशरीरी, [अविनाशाः ] अविनाशी, [अतीन्द्रियाः ]
अतीन्द्रिय, [निर्मलाः ] निर्मल और [विशुद्धात्मानः ] विशुद्धात्मा (विशुद्धस्वरूपी) हैं,
[तथा ] उसीप्रकार [संसृतौ ] संसारमें [जीवाः ] (सर्व) जीव [ज्ञेयाः ] जानना ।
टीका : — और यह, कार्यसमयसार तथा कारणसमयसारमें अन्तर न होनेका
कथन है ।
जिसप्रकार लोकाग्रमें सिद्धपरमेष्ठी भगवन्त निश्चयसे पाँच शरीरके प्रपंचके
अभावके कारण ‘अशरीरी’ हैं, निश्चयसे नर - नारकादि पर्यायोंके त्याग - ग्रहणके अभावके
कारण ‘अविनाशी’ हैं, परम तत्त्वमें स्थित सहजदर्शनादिरूप कारणशुद्धस्वरूपको युगपद्
जाननेमें समर्थ ऐसी सहजज्ञानज्योति द्वारा जिसमेंसे समस्त संशय दूर कर दिये गये हैं
ऐसे स्वरूपवाले होनेके कारण ‘अतीन्द्रिय’ हैं, मलजनक क्षायोपशमिकादि
विभावस्वभावोंके अभावके कारण ‘निर्मल’ हैं और द्रव्यकर्मों तथा भावकर्मोंके
विन देह अविनाशी, अतीन्द्रिय, शुद्ध निर्मल सिद्ध ज्यों ।
लोकाग्रमें जैसे विराजे, जीव हैं भवलीन त्यों ।।४८।।