Niyamsar (Hindi). Gatha: 49.

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सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अमी केनचिन्नयबलेन संसारिजीवाः शुद्धा इति
(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धाशुद्धविकल्पना भवति सा मिथ्याद्रशि प्रत्यहं
शुद्धं कारणकार्यतत्त्वयुगलं सम्यग्द्रशि प्रत्यहम्
इत्थं यः परमागमार्थमतुलं जानाति सद्द्रक् स्वयं
सारासारविचारचारुधिषणा वन्दामहे तं वयम् ।।७२।।
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ।।9।।
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु
सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ।।9।।
१०२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अभावके कारण ‘विशुद्धात्मा’ हैं, उसीप्रकार संसारमें भी यह संसारी जीव किसी नयके
बलसे (किसी नयसे) शुद्ध हैं
[अब ४८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] शुद्ध - अशुद्धकी जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टिको सदैव होती है;
सम्यग्दृष्टिको तो सदा (ऐसी मान्यता होती है कि) कारणतत्त्व और कार्यतत्त्व दोनों शुद्ध
हैं
इसप्रकार परमागमके अतुल अर्थको सारासारके विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा जो
सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं ७२
गाथा : ४९ अन्वयार्थ :[एते ] यह (पूर्वोक्त) [सर्वे भावाः ] सब भाव
[खलु ] वास्तवमें [व्यवहारनयं प्रतीत्य ] व्यवहारनयका आश्रय करके [भणिताः ] (संसारी
जीवोंमें विद्यमान) कहे गये हैं; [शुद्धनयात् ] शुद्धनयसे [संसृतौ ] संसारमें रहनेवाले [सर्वे
जीवाः ]
सर्व जीव [सिद्धस्वभावाः ] सिद्धस्वभावी हैं
विकल्पना = विपरीत कल्पना; मिथ्या मान्यता; अनिश्चय; शंका; भेद करना
व्यवहारनयसे हैं कहे सब जीवके ही भाव ये
हैं शुद्धनयसे जीव सब भवलीन सिद्ध स्वभावसे ।।४९।।