निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत् ।
ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितास्ते सर्वे विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन
विद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभावैश्चतुर्भिः परिणताः सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां
सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सद्रशाः शुद्धनयादेशादिति ।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः —
(मालिनी)
‘‘व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ १०३
टीका : — यह, निश्चयनय और व्यवहारनयकी ❃उपादेयताका प्रकाशन
( – कथन) है ।
पहले जो विभावपर्यायें ‘विद्यमान नहीं हैं ’ ऐसी प्रतिपादित की गई हैं वे सब
विभावपर्यायें वास्तवमें व्यवहारनयके कथनसे विद्यमान हैं । और जो (व्यवहारनयके
कथनसे) चार विभावभावरूप परिणत होनेसे संसारमें भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनयके
कथनसे शुद्धगुणपर्यायों द्वारा सिद्धभगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनयके कथनसे
औदयिकादि विभावभावोंवाले होनेसे संसारी हैं वे सब शुद्धनयके कथनसे शुद्ध गुणों तथा
शुद्ध पर्यायोंवाले होनेसे सिद्ध सदृश हैं )
।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिकामें जिन्होंने पैर रखा है ऐसे
❃प्रमाणभूत ज्ञानमें शुद्धात्मद्रव्यका तथा उसकी पर्यायोंका — दोनोंका सम्यक् ज्ञान होना चाहिये ।
‘स्वयंको कथंचित् विभावपर्यायें विद्यमान है’ ऐसा स्वीकार ही जिसके ज्ञानमें न हो उसे
शुद्धात्मद्रव्यका भी सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता । इसलिये ‘व्यवहारनयके विषयोंका भी ज्ञान तो
ग्रहण करने योग्य है’ ऐसी विवक्षासे ही यहाँ व्यवहारनयको उपादेय कहा है, ‘उनका आश्रय ग्रहण
करने योग्य है’ ऐसी विवक्षासे नहीं । व्यवहारनयके विषयोंका आश्रय ( – आलम्बन, झुकाव,
सन्मुखता, भावना) तो छोड़नेयोग्य है ही ऐसा समझानेके लिये ५०वीं गाथामें व्यवहारनयको
स्पष्टरूपसे हेय कहा जायेगा । जिस जीवको अभिप्रायमें शुद्धात्मद्रव्यके आश्रयका ग्रहण और
पर्यायोंके आश्रयका त्याग हो, उसी जीवको द्रव्यका तथा पर्यायोंका ज्ञान सम्यक् है ऐसा समझना,
अन्यको नहीं ।