१०४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।’’
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।’’
तथा हि —
(स्वागता)
शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्तौ
संसृतावपि च नास्ति विशेषः ।
संसृतावपि च नास्ति विशेषः ।
एवमेव खलु तत्त्वविचारे
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ।।७३।।
शुद्धतत्त्वरसिकाः प्रवदन्ति ।।७३।।
पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ।।५०।।
पूर्वोक्त सकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः ।
स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ।।५०।।
जीवोंको, अरेरे ! हस्तावलम्बरूप भले हो, तथापि जो जीव चैतन्यचमत्कारमात्र, परसे रहित
ऐसे परम पदार्थको अन्तरंगमें देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है ।’’
ऐसे परम पदार्थको अन्तरंगमें देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है ।’’
और (इस ४९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] ‘शुद्धनिश्चयनयसे मुक्तिमें तथा संसारमें अन्तर नहीं है;’ ऐसा ही वास्तवमें, तत्त्व विचारने पर ( – परमार्थ वस्तुस्वरूपका विचार अथवा निरूपण करने पर), शुद्ध तत्त्वके रसिक पुरुष कहते हैं ।७३।
गाथा : ५० अन्वयार्थ : — [पूर्वोक्तसकलभावाः ] पूर्वोक्त सर्व भाव [परस्वभावाः ] पर स्वभाव हैं, [परद्रव्यम् ] परद्रव्य हैं, [इति ] इसलिये [हेयाः ] हेय हैं, [अन्तस्तत्त्वं ] अन्तःतत्त्व [स्वकद्रव्यम् ] ऐसा स्वद्रव्य — [आत्मा ] आत्मा — [उपादेयम् ] उपादेय [भवेत् ] है ।
परद्रव्य हैं परभाव हैं पूर्वोक्त सारे भाव ही ।
अतएव हैं ये त्याज्य, अन्तस्तत्त्व है आदेय ही ।।५०।।