जिनेन्द्रोंकी दिव्यध्वनिका संक्षेप और हमारे स्वसंवेदनका सार यह है कि — भयंकर संसार
रोगकी एकमात्र औषधि परमात्मतत्त्वका आश्रय ही है । जब तक जीवकी दृष्टि ध्रुव अचल
परमात्मतत्त्व पर न पड़कर क्षणिक भावों पर रहती है तब तक अनन्त उपायोंसे भी उसकी
कृतक औपाधिक हिलोरें — शुभाशुभ विकल्प — शान्त नहीं होतीं, किन्तु जहाँ उस दृष्टिको
परमात्मतत्त्वरूप ध्रुव आलम्बन हाथ लगता है वहाँ उसी क्षण वह जीव (दृष्टि – अपेक्षासे)
कृतकृत्यताका अनुभव करता है, (दृष्टि – अपेक्षासे) विधि – निषेध विलयको प्राप्त होते हैं, अपूर्व
समरसभावका वेदन होता है, निज स्वभावभावरूप परिणमनका प्रारम्भ होता है और कृतक
औपाधिक हिलोरें क्रमशः शान्त होती जाती हैं । इस निरंजन निज परमात्मतत्त्वके आश्रयरूप
मार्गसे ही सर्व मुमुक्षु भूत कालमें पंचमगतिको प्राप्त हुए हैं, वर्तमानमें हो रहे हैं और
भविष्यकालमें होंगे । यह परमात्मतत्त्व सर्व तत्त्वोंमें एक सार है, त्रिकाल – निरावरण,
नित्यानन्द – एकस्वरूप है, स्वभाव – अनन्त चतुष्टयसे सनाथ है, सुखसागरका ज्वार है,
क्लेशोदधिका किनारा है, चारित्रका मूल है, मुक्तिका कारण है । सर्व भूमिकाके साधकोंको
वही एक उपादेय है । हे भव्य जीवों ! इस परमात्मतत्त्वका आश्रय करके तुम शुद्ध रत्नत्रय
प्रगट करो । इतना न कर सको तो सम्यग्दर्शन तो अवश्य ही करो । वह दशा भी अभूतपूर्व
तथा अलौकिक है ।
इस प्रकार इस परम पवित्र शास्त्रमें मुख्यतः परमात्मतत्त्व और उसके आश्रयसे प्रगट
होनेवाली पर्यायोंका वर्णन होने पर भी, साथ-साथ द्रव्यगुणपर्याय, छह द्रव्य, पाँच भाव,
व्यवहार-निश्चयनय, व्यवहारचारित्र, सम्यग्दर्शन प्राप्तिमें प्रथम तो अन्य सम्यगदृष्टि जीवकी
देशना ही निमित्त होती है ( — मिथ्यादृष्टि जीवकी नहीं) ऐसा अबाधित नियम, पंच परमेष्ठीका
स्वरूप, केवलज्ञान-केवलदर्शन केवलीका इच्छारहितपना आदि अनेक विषयोंका संक्षिप्त
निरूपण भी किया गया है । इसप्रकार उपरोक्त प्रयोजनभूत विषयोंको प्रकाशित करता हुआ
यह शास्त्र वस्तुस्वरूपका यथार्थ निर्णय करके परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले
जीवको महान उपकारी है । अंतःतत्त्वरूप अमृतसागर पर दृष्टि लगाकर ज्ञानानंदकी तरंगें
उछालनेवाले हुए महा मस्त मुनिवरोंके अन्तर्वेदनमेंसे निकले हुए भावोंसे भरा हुआ यह परमागम
नन्दनवन समान आह्लादकारी है । मुनिवरोंके हृदयकमलमें विराजमान अन्तःतत्त्वरूप
अमृतसागर परसे तथा शुद्धपर्यायोंरूप अमृतझरने परसे बहता हुआ श्रुतरूप शीतल समीर मानों
कि अमृत-सीकरोंसे मुमुक्षुओंके चित्तको परम शीतलीभूत करता है । ऐसा शांतरस परम
आध्यात्मिक शास्त्र आज भी विद्यमान है और परमपूज्य गुरुदेव द्वारा उसकी अगाध
आध्यात्मिक गहराईयाँ प्रगट होती जा रही हैं यह हमारा महान सौभाग्य है । पूज्य गुरुदेवको
श्री नियमसारके प्रति अपार भक्ति है । वे कहते हैं — ‘‘परम पारिणामिकभावको प्रकाशित
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