तो मुनिवरोंने अध्यात्मकी अनुभवगम्य अत्यंतात्यंत सूक्ष्म और गहन बातको इस शास्त्रमें स्पष्ट
किया है । सर्वोत्कृष्ट परमागम श्री समयसारमें भी इन विषयोंका इतने स्पष्टरूपसे निरूपण नहीं
किस प्रकार सिद्धिको प्राप्त हुए हैं उसका इतिहास इसमें भर दिया है ।
इस शास्त्रमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखनेवाले मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव हैं । वे श्री वीरनन्दि सिद्धांतचक्रवर्तीके शिष्य हैं और विक्रम की तेरहवीं शताब्दीमें हो गये हैं, ऐसा शिलालेख आदि साधनों द्वारा संशोधन-कर्त्ताओंका अनुमान है । ‘‘परमागमरूपी मकरंद जिनके मुखसे झरता है और पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रह जिनके था’’ ऐसे निर्ग्रन्थ मुनिवर श्री पद्मप्रभदेवने भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके हृदयमें भरे हुए परम गहन आध्यात्मिक भावोंको अपने अर्न्तवेदनके साथ मिलाकर इस टीकामें स्पष्टरूपसे प्रगट किया है । इस टीकामें आनेवाले कलशरूप काव्य अत्यन्त मधुर है और अध्यात्ममस्ती तथा भक्तिरससे भरपूर हैं । अध्यात्मकविके रूपमें श्री पद्मप्रभमलधारिदेवका स्थान जैन साहित्यमें अति उच्च है । टीकाकार मुनिराजने गद्य तथा पद्यरूपमें परम पारिणामिक भावका तो खूब-खूब गान किया है । संपूर्ण टीका मानों परम पारिणामिक भावका और तदाश्रित मुनिदशाका एक महाकाव्य हो इसप्रकार मुमुक्षु हृदयोंको मुदित करती है । परम पारिणामिकभाव, सहज सुखमय मुनिदशा और सिद्ध जीवोंकी परमानन्दपरिणतिके प्रति भक्तिसे मुनिवरका चित्त मानों उमड़ पड़ता है और उस उल्लासको व्यक्त करनेके लिये उनके शब्द अत्यंत अल्प होनेसे उनके मुखसे अनेक प्रसंगोचित्त उपमा-अलंकार प्रवाहित हुए हैं । अन्य अनेक उपमाओंकी भाँति – मुक्ति दीक्षा आदिको बारम्बार स्त्रीको उपमा भी लेशमात्र संकोच बिना निःसंकोचरूपसे दी गई है वह आत्मलीन महामुनिवरके ब्रह्मचर्यका अतिशय बल सूचित करती है । संसार दावानलके समान है और सिद्धदशा तथा मुनिदशा – परम सहजानन्दमय है — ऐसे भावके धारावाही वातावरण सम्पूर्ण टीकामें ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरने अलौकिक रीतिसे उत्पन्न किया है और स्पष्टरूपसे दर्शाया