हठपूर्वक, खेदयुक्त, कष्टप्रद या नरकादिके भयमूलक नहीं होती, किन्तु अन्तरंग आत्मिक
वेदनसे होनेवाली परम परितृप्तिके कारण निरन्तर सहजानन्दमय होती है — कि जिस सहजानंदके
भासित होते हैं । सचमुच मूर्तिमंत मुनिपरिणति समान यह टीका मोक्षमार्गमें विचरनेवाले
उपकार किया है ।
श्री नियमसारमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने १८७ गाथाएँ प्राकृतमें रची हैं, उन पर श्री पद्मप्रभमलधारिदेवने तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है । ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने मूल गाथाओंका तथा टीकाका हिन्दी अनुवाद किया है । वि० सम्वत् १९७२में श्री जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयकी ओरसे प्रकाशित हिन्दी नियमसारमें मूल गाथाएँ, संस्कृत टीका तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी कृत हिन्दी अनुवाद प्रगट हुए थे । अब श्री जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र)से यह ग्रन्थ गुजरातीमें प्रकाशित हुआ है जिसमें मूल गाथाएँ, उनका गुजराती पद्यानुवाद, संस्कृत टीका और उस गाथा-टीकाके अक्षरशः गुजराती अनुवादका समावेश होता है । जहाँ, विशेष स्पष्टताकी आवश्यकता थी वहाँ‘कौन्स’में अथवा ‘फू टनोट’ (टिप्पणी) द्वारा स्पष्टता की गई है । श्री जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित नियमसारमें छपी हुई संस्कृत टीकामें जो अशुद्धियाँ थीं उनमेंसे अनेक अशुद्धियाँ हस्तलिखित प्रतियोंके आधार पर सुधार ली गई हैं । अब भी इसमें कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ हो ऐसा लगता है, किन्तु हमें जो तीन हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं उनमें शुद्ध पाठ न मिलनेके कारण उन अशुद्धियोंको नहीं सुधारा जा सका है । अशुद्ध पाठोंका अनुवाद करनेमें बड़ी सावधानी रखी गई है और पूर्वापर कथन तथा न्यायके साथ जो अधिकसे अधिक संगत हो ऐसा उन पाठोंका अनुवाद किया है ।
यह अनुवाद करनेका महान सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ वह मेरे लिये हर्षका कारण है । परम पूज्य सद्गुरुदेवके आश्रयमें इस गहन शास्त्रका अनुवाद हुआ है । परमोपकारी सद्गुरुदेवके पवित्र जीवनके प्रत्यक्ष परिचय बिना तथा उनके आध्यात्मिक उपदेश बिना इस पामरको जिनवाणीके प्रति लेशमात्र भक्ति या श्रद्धा कहाँसे प्रगट होती, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव और उनके शास्त्रोंकी लेश भी महिमा कहाँसे आती तथा उन शास्त्रोंका अर्थ खोलनेकी लेश भी शक्ति कहाँसे प्राप्त होती ? इस प्रकार अनुवादकी समस्त शक्तिका मूल श्री सद्गुरुदेव ही होनेसे वास्तवमें तो सद्गुरुदेवकी अमृतवाणीका स्रोत ही — उनके द्वारा प्राप्त