इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।
अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तु-
प्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेऽप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात्
अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति । अभेदानुपचाररत्नत्रय-
परिणतेर्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांतर्मुखपरम-
बोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति । यः परमजिन-
योगीश्वरः प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनय-
गोचरतपश्चरणं भवति । सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः ।
स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति ।
तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ —
चारित्र है । इसप्रकार भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणति है । उसमें, जिनप्रणीत हेय-उपादेय
तत्त्वोंका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । इस सम्यक्त्वपरिणामका बाह्य सहकारी कारण
वीतराग-सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमें समर्थ ऐसा
द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थनिर्णयके हेतुपनेके
कारण (सम्यक्त्वपरिणामके) अन्तरङ्गहेतु कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मका
क्षयादिक है ।
अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाले जीवको, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जिसका एक
स्वभाव है ऐसे निज परम तत्त्वकी श्रद्धा द्वारा, तद्ज्ञानमात्र ( – उस निज परम तत्त्वके
ज्ञानमात्रस्वरूप) ऐसे अंतर्मुख परमबोध द्वारा और उस-रूपसे (अर्थात् निज परम
तत्त्वरूपसे) अविचलरूपसे स्थित होनेरूप सहजचारित्र द्वारा ❃अभूतपूर्व सिद्धपर्याय होती
है । जो परमजिनयोगीश्वर पहले पापक्रियासे निवृत्तिरूप व्यवहारनयके चारित्रमें होते हैं, उन्हें
वास्तवमें व्यवहारनयगोचर तपश्चरण होता है । सहजनिश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप
परमात्मामें प्रतपन सो तप है; निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहजनिश्चयचारित्र इस
तपसे होता है ।
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें (श्री पद्मनन्दि-आचार्यदेवकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
नामक शास्त्रमें एकत्वसप्तति नामके अधिकारमें १४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
❃ अभूतपूर्व = पहले कभी न हुआ हो ऐसा; अपूर्व ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ १०९