Niyamsar (Hindi).

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सम्यक्त्वं संज्ञानं विद्यते मोक्षस्य भवति शृणु चरणम्
व्यवहारनिश्चयेन तु तस्माच्चरणं प्रवक्ष्यामि ।।५४।।
व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम्
निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ।।५५।।
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत
भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धि-
परंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढविवर्जितसमुपजनितनिश्चलभक्ति युक्त त्वमेव
विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः संज्ञानमपि च
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितमेव तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति विमोहः
शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम्
१०८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
[शृणु ] सुन, [मोक्षस्य ] मोक्षके लिये [सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व होता है, [संज्ञानं ]
सम्यग्ज्ञान [विद्यते ] होता है, [चरणम् ] चारित्र (भी) [भवति ] होता है; [तस्मात् ]
इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु ] मैं व्यवहार और निश्चयसे [चरणं प्रवक्ष्यामि ] चारित्र कहूँगा
[व्यवहारनयचरित्रे ] व्यवहारनयके चारित्रमें [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयका
[तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है; [निश्चयनयचारित्रे ] निश्चयनयके चारित्रमें
[निश्चयतः ] निश्चयसे [तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है
टीका :यह, रत्नत्रयके स्वरूपका कथन है
प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है :विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप
ऐसा जो सिद्धिके परम्पराहेतुभूत भगवन्त पंचपरमेष्ठीके प्रति उत्पन्न हुआ चलता
मलिनताअगाढ़ता रहित निश्चल भक्तियुक्तपना वही सम्यक्त्व है विष्णुब्रह्मादिकथित
विपरीत पदार्थसमूहके प्रति अभिनिवेशका अभाव ही सम्यक्त्व हैऐसा अर्थ है
संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) ही सम्यग्ज्ञान है वहाँ, जिन देव होंगे या
शिव देव होंगे (ऐसा शंकारूपभाव) वह संशय है; शाक्यादिकथित वस्तुमें निश्चय
(अर्थात् बुद्धादि कथित पदार्थका निर्णय) वह विमोह है; अज्ञानपना (अर्थात् वस्तु
क्या है तत्सम्बन्धी अजानपना) ही विभ्रम है
पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम वह