परंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढविवर्जितसमुपजनितनिश्चलभक्ति युक्त त्वमेव । विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि च संशयविमोहविभ्रमविवर्जितमेव । तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहः शाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् ।
[शृणु ] सुन, [मोक्षस्य ] मोक्षके लिये [सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व होता है, [संज्ञानं ] सम्यग्ज्ञान [विद्यते ] होता है, [चरणम् ] चारित्र (भी) [भवति ] होता है; [तस्मात् ] इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु ] मैं व्यवहार और निश्चयसे [चरणं प्रवक्ष्यामि ] चारित्र कहूँगा ।
[व्यवहारनयचरित्रे ] व्यवहारनयके चारित्रमें [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयका [तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है; [निश्चयनयचारित्रे ] निश्चयनयके चारित्रमें [निश्चयतः ] निश्चयसे [तपश्चरणम् ] तपश्चरण [भवति ] होता है ।
प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है : — विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप ऐसा जो सिद्धिके परम्पराहेतुभूत भगवन्त पंचपरमेष्ठीके प्रति उत्पन्न हुआ चलता – मलिनता – अगाढ़ता रहित निश्चल भक्तियुक्तपना वही सम्यक्त्व है । विष्णुब्रह्मादिकथित विपरीत पदार्थसमूहके प्रति अभिनिवेशका अभाव ही सम्यक्त्व है — ऐसा अर्थ है । संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) ही सम्यग्ज्ञान है । वहाँ, जिन देव होंगे या शिव देव होंगे ( – ऐसा शंकारूपभाव) वह संशय है; शाक्यादिकथित वस्तुमें निश्चय (अर्थात् बुद्धादि कथित पदार्थका निर्णय) वह विमोह है; अज्ञानपना (अर्थात् वस्तु क्या है तत्सम्बन्धी अजानपना) ही विभ्रम है । पापक्रियासे निवृत्तिरूप परिणाम वह