गाथा : ५१ से ५५ अन्वयार्थ : — [विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानम् एव ] विपरीत ❃अभिनिवेश रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व है; [संशयविमोहविभ्रम- विवर्जितम् ] संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) वह [संज्ञानम् भवति ] सम्यग्ज्ञान है ।
[चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानम् एव ] चलता, मलिनता और अगाढ़ता रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम् ] सम्यक्त्व है; [हेयोपादेयतत्त्वानाम् ] हेय और उपादेय तत्त्वोंको [अधिगमभावः ] जाननेरूप भाव वह [ज्ञानम् ] (सम्यक्) ज्ञान है ।
[सम्यक्त्वस्य निमित्तं ] सम्यक्त्वका निमित्त [जिनसूत्रं ] जिनसूत्र है; [तस्य ज्ञायकाः पुरुषाः ] जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको [अन्तर्हेतवः ] (सम्यक्त्वके) अन्तरंग हेतु [भणिताः ] कहे हैं, [दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ] क्योंकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक हैं । ❃ अभिनिवेश = अभिप्राय; आग्रह ।