Niyamsar (Hindi). Gatha: 51-53.

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तथा हि
(शालिनी)
न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकाया-
दन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः
इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी
सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम्
।।७४।।
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं
संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ।।५१।।
चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ।।५२।।
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।।५३।।
१०६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
और (इस ५०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
[श्लोेकार्थ :] ‘शुद्ध जीवास्तिकायसे अन्य ऐसे जो सब पुद्गलद्रव्यके भाव वे
वास्तवमें हमारे नहीं हैं’ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूपसे कहता है वह अति अपूर्व सिद्धिको
प्राप्त होता है ७४
मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है
संशय-विमोह-विभ्रान्ति विरहित ज्ञान सुज्ञानत्व है ।।५१।।
चल-मल-अगाढ़पने रहित श्रद्धान वह सम्यक्त्व है
आदेय-हेय पदार्थका अवबोध सुज्ञानत्व है ।।५२।।
जिनसूत्र समकितहेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो
वह जान अंतर्हेतु जिनके दर्शनमोहक्षयादि हो ।।५३।।