तथा हि —
(शालिनी)
भुक्त्वा भक्तं भक्त हस्ताग्रदत्तं
ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् ।
तप्त्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी
प्राप्नोतीद्धां मुक्ति वारांगनां सः ।।८६।।
पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो ।
आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्ठा ।।६४।।
पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः ।
आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टा ।।६४।।
अत्रादाननिक्षेपणसमितिस्वरूपमुक्त म् ।
अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्ति रियम् ।
और (६३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] भक्तके हस्ताग्रसे ( – हाथकी उँगलियोंसे) दिया गया भोजन
लेकर, पूर्ण ज्ञानप्रकाशवाले आत्माका ध्यान करके, इसप्रकार सत् तपको ( – सम्यक्
तपको) तपकर, वह सत् तपस्वी ( – सच्चा तपस्वी) देदीप्यमान मुक्तिवारांगनाको
( – मुक्तिरूपी स्त्रीको) प्राप्त करता है ।८६।
गाथा : ६४ अन्वयार्थ : — [पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः ] पुस्तक,
कमण्डल आदि लेने-रखने सम्बन्धी [प्रयत्नपरिणामः ] प्रयत्नपरिणाम वह
[आदाननिक्षेपणसमितिः ] आदाननिक्षेपणसमिति [भवति ] है [इति निर्दिष्टा ] ऐसा कहा है ।
टीका : — यहाँ आदाननिक्षेपणसमितिका स्वरूप कहा है ।
यह, १अपहृतसंयमियोंको संयमज्ञानादिकके उपकरण लेते – रखते समय उत्पन्न
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
१ – अपहृतसंयमी = अपहृतसंयमवाले मुनि । [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम (हीन –
न्यूनतावाला संयम), सरागचारित्र और शुभोपयोग — यह सब एकार्थ हैं । ]
पुस्तक कमण्डल आदि निक्षेपणग्रहण करते यती ।
होता प्रयत परिणाम वह आदाननिक्षेपण समिति ।।६४।।