अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम् ।
इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते । तद्यथा —
‘‘जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ।।’’
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः —
(मालिनी)
‘‘यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा
परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी ।
विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं
दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ।।’’
— अशुद्ध जीवोंके विभावधर्म सम्बन्धमें व्यवहारनयका यह (अवतरण की गई
गाथामें) उदाहरण है ।
अब (श्री प्रवचनसारकी २२७वीं गाथा द्वारा) निश्चयका उदाहरण कहा जाता है ।
वह इसप्रकार : —
‘‘[गाथार्थ : — ] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी
आत्माको जाननेके कारण स्वभावसे आहारकी इच्छा रहित है ) उसे वह भी तप है; (और)
उसे प्राप्त करनेके लिये ( – अनशनस्वभावी आत्माको परिपूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये)
प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य ( – स्वरूपसे भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना
( – एषणादोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं ।’’
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२५वें श्लोक द्वारा)
कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जिसने अध्यात्मके सारका निश्चय किया है, जो अत्यन्त
यमनियम सहित है, जिसका आत्मा बाहरसे और भीतरसे शान्त हुआ है, जिसे समाधि
परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवोंके प्रति अनुकम्पा है, जो विहित ( – शास्त्राज्ञाके अनुसार)
❃
हित - मित भोजन करनेवाला है, जिसने निद्राका नाश किया है, वह (मुनि) क्लेशजालको
समूल जला देता है ।’’
❃ हित-मित = हितकर और उचित मात्रामें ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १२५