शुद्धिनामधेयैर्नवविधपुण्यैः प्रतिपत्तिं कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्ति ज्ञानदयाक्षमाऽभिधान-
सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्तं भुंजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः
तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति
अगोचर वह प्रासुक (अन्न) — ऐसा (शास्त्रमें) कहा है । १प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि (मन - वचन - कायाकी शुद्धि) और भिक्षाशुद्धि — इस नवविध पुण्यसे (नवधा भक्तिसे) आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा — इन (दाताके) सात गुणों सहित शुद्ध योग्य-आचारवाले उपासक द्वारा दिया गया (नव कोटिरूपसे शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उन्हें एषणासमिति होती है । ऐसा व्यवहारसमितिका क्रम है ।
अब निश्चयसे ऐसा है कि — जीवको परमार्थसे अशन नहीं है; छह प्रकारका अशन व्यवहारसे संसारियोंको ही होता है ।
आहार और मन - आहार — इसप्रकार आहार क्रमशः छह प्रकारका जानना ।’’ १ प्रतिग्रह = ‘‘आहारजल शुद्ध है; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, (ठहरिये ठहरिये, ठहरिये)’’ ऐसा कहकर
ले जाकर, उच्च-आसन पर विराजमान करके, पाँव धोकर, पूजन करता है और प्रणाम करता है ।
फि र मन-वचन-कायाकी शुद्धिपूर्वक शुद्ध भिक्षा देता है । ] ❃यहाँ उद्धृत की गई गाथा समयसारमें नहि है, परन्तु प्रवचनसारमें (प्रथम अधिकारकी २०वीँ गाथाकी