Niyamsar (Hindi). Gatha: 63.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १२३
(अनुष्टुभ्)
परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम्
अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जल्पैश्च किं पुनः ।।८५।।
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ।।६३।।
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च
दत्तं परेण भक्तं संभुक्ति : एषणासमितिः ।।६३।।
अत्रैषणासमितिस्वरूपमुक्त म् तद्यथा
मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तैः

संयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्त म्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-

[श्लोेकार्थ : ] परब्रह्मके अनुष्ठानमें निरत (अर्थात् परमात्माके आचरणमें लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषोंकोमुनिजनोंको अन्तर्जल्पसे (विकल्परूप अन्तरंग उत्थानसे) भी बस होओ, बहिर्जल्पकी (भाषा बोलनेकी) तो बात ही क्या ? ८५

गाथा : ६३ अन्वयार्थ :[परेण दत्तं ] पर द्वारा दिया गया, [कृतकारितानुमोदनरहितं ] कृत - कारित - अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं ] प्रासुक [प्रशस्तं च ] और प्रशस्त [भक्तं ] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः ] जो सम्यक् आहारग्रहण [एषणासमितिः ] वह एषणासमिति है

टीका :यहाँ एषणासमितिका स्वरूप कहा है वह इसप्रकार

मन, वचन और कायामेंसे प्रत्येकको कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूपसे विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्रमें) कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियोंके संचारको

प्रशस्त = अच्छा; शास्त्रमें प्रशंसित; जो व्यवहारसे प्रमादादिका या रोगादिका निमित्त न हो ऐसा
आहार प्रासुक शुद्ध लें पर - दत्त कृत कारित बिना
करते नहिं अनुमोदना मुनि समिति जिनके एषणा ।।६३।।