संयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्त म्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-
[श्लोेकार्थ : — ] परब्रह्मके अनुष्ठानमें निरत (अर्थात् परमात्माके आचरणमें लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषोंको — मुनिजनोंको अन्तर्जल्पसे ( – विकल्परूप अन्तरंग उत्थानसे) भी बस होओ, बहिर्जल्पकी ( – भाषा बोलनेकी) तो बात ही क्या ? ।८५।
गाथा : ६३ अन्वयार्थ : — [परेण दत्तं ] पर द्वारा दिया गया, [कृतकारितानुमोदनरहितं ] कृत - कारित - अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं ] प्रासुक [प्रशस्तं च ] और ❃प्रशस्त [भक्तं ] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः ] जो सम्यक् आहारग्रहण [एषणासमितिः ] वह एषणासमिति है ।
मन, वचन और कायामेंसे प्रत्येकको कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूपसे विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्रमें) कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियोंके संचारको