Niyamsar (Hindi). Gatha: 63.

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(अनुष्टुभ्)
परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम्
अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जल्पैश्च किं पुनः ।।८५।।
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ।।६३।।
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च
दत्तं परेण भक्तं संभुक्ति : एषणासमितिः ।।६३।।
अत्रैषणासमितिस्वरूपमुक्त म् तद्यथा
मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तैः
संयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्त म्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-
[श्लोेकार्थ : ] परब्रह्मके अनुष्ठानमें निरत (अर्थात् परमात्माके आचरणमें लीन)
ऐसे बुद्धिमान पुरुषोंकोमुनिजनोंको अन्तर्जल्पसे (विकल्परूप अन्तरंग उत्थानसे) भी
बस होओ, बहिर्जल्पकी (भाषा बोलनेकी) तो बात ही क्या ? ८५
गाथा : ६३ अन्वयार्थ :[परेण दत्तं ] पर द्वारा दिया गया,
[कृतकारितानुमोदनरहितं ] कृत - कारित - अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं ] प्रासुक [प्रशस्तं
च ] और प्रशस्त [भक्तं ] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः ] जो सम्यक् आहारग्रहण
[एषणासमितिः ] वह एषणासमिति है
टीका :यहाँ एषणासमितिका स्वरूप कहा है वह इसप्रकार
मन, वचन और कायामेंसे प्रत्येकको कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर
उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूपसे विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्रमें)
कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियोंके संचारको
प्रशस्त = अच्छा; शास्त्रमें प्रशंसित; जो व्यवहारसे प्रमादादिका या रोगादिका निमित्त न हो ऐसा
आहार प्रासुक शुद्ध लें पर - दत्त कृत कारित बिना
करते नहिं अनुमोदना मुनि समिति जिनके एषणा ।।६३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १२३