Niyamsar (Hindi).

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विकारगतं हास्यकर्म कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः
परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा एतत्सर्वम-
प्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(मालिनी)
‘‘समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः
स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः
स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथमिह न विमुक्ते र्भाजनं ते विमुक्ताः
।।’’
तथा च
कारण, पुरुषके मुंहके विकारके साथ सम्बन्धवाला, वह हास्यकर्म है कर्ण छिद्रके निकट
पहुँचनेमात्रसे जो दूसरोंको अप्रीति उत्पन्न करते हैं वे कर्कश वचन हैं दूसरेके विद्यमान
- अविद्यमान दूषणपूर्वकके वचन (अर्थात् परके सच्चे तथा झूठे दोष कहनेवाले वचन) वह
परनिन्दा है अपने विद्यमान - अविद्यमान गुणोंकी स्तुति वह आत्मप्रशंसा है इन सब
अप्रशस्त वचनोंके परित्याग पूर्वक स्व तथा परको शुभ और शुद्ध परिणतिके कारणभूत
वचन वह भाषासमिति है
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्रीगुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २२६ वें श्लोक
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोेकार्थ : ] जिन्होंने सब (वस्तुस्वरूप) जान लिया है, जो सर्व
सावद्यसे दूर हैं, जिन्होंने स्वहितमें चित्तको स्थापित किया है, जिनके सर्व प्रचार शान्त
हुआ है, जिनकी भाषा स्वपरको सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प रहित हैं, वे
विमुक्त पुरुष इस लोकमें विमुक्तिका भाजन क्यों नहीं होंगे ? (अर्थात् ऐसे मुनिजन
अवश्य मोक्षके पात्र हैं
)’’
और (६२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
प्रचार = व्यवस्था; कार्य सिर पर लेना; आरम्भ; बाह्य प्रवृत्ति
१२२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-