Niyamsar (Hindi). Gatha: 62.

< Previous Page   Next Page >


Page 121 of 388
PDF/HTML Page 148 of 415

 

background image
(आर्या)
निश्चयरूपां समितिं सूते यदि मुक्ति भाग्भवेन्मोक्षः
बत न च लभतेऽपायात् संसारमहार्णवे भ्रमति ।।८४।।
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ।।६२।।
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम्
परित्यज्य स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ।।६२।।
अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्त म्
कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वा
महद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्य
त्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुख-
[श्लोेकार्थ : ] यदि जीव निश्चयरूप समितिको उत्पन्न करे, तो वह मुक्तिको
प्राप्त करता हैमोक्षरूप होता है परन्तु समितिके नाशसे (अभावसे), अरेरे ! वह मोक्ष
प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महासागरमें भटकता है ८४
गाथा : ६२ अन्वयार्थ :[पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ]
पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश भाषा, परनिन्दा और आत्मप्रशंसारूप वचनका
[परित्यज्य ] परित्यागकर [स्वपरहितं वदतः ] जो स्वपरहितरूप वचन बोलता है, उसे
[भाषासमितिः ] भाषासमिति होती है
टीका :यहाँ भाषासमितिका स्वरूप कहा है
चुगलखोर मनुष्यके मुँहसे निकले हुए और राजाके कान तक पहुँचे हुए, किसी एक
पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्रामको महा विपत्तिके कारणभूत ऐसे वचन
वह पैशून्य है
कहीं कभी किञ्चित् परजनोंके विकृत रूपको देखकर अथवा सुनकर हास्य
नामक नोकषायसे उत्पन्न होनेवाला, किंचित् शुभके साथ मिश्रित होने पर भी अशुभ कर्मका
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १२१
पैशून्य, कर्कश, हास्य, परनिन्दा, प्रशंसा आत्मकी
छोड़ें कहे हितकर वचन, उसके समिति वचनकी ।।६२।।