(मन्दाक्रांता)
इत्थं बुद्ध्वा परमसमितिं मुक्ति कान्तासखीं यो
मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च ।
स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे
भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त एव ।।८१।।
(मालिनी)
जयति समितिरेषा शीलमूलं मुनीनां
त्रसहतिपरिदूरा स्थावरणां हतेर्वा ।
भवदवपरितापक्लेशजीमूतमाला
सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी ।।८२।।
(मालिनी)
नियतमिह जनानां जन्म जन्मार्णवेऽस्मिन्
समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम् ।
मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये
ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्ते : ।।८३।।
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार मुक्तिकान्ताकी (मुक्तिसुन्दरीकी) सखी
परमसमितिको जानकर जो जीव भवभयके करनेवाले कंचनकामिनीके संगको छोड़कर,
अपूर्व, सहज - विलसते (स्वभावसे प्रकाशते), अभेद चैतन्यचमत्कारमात्रमें स्थित रहकर
(उसमें) सम्यक् ‘इति’ ( – गति) करता है अर्थात् सम्यक्रूपसे परिणमित होता है वह
सर्वदा मुक्त ही है ।८१।
[श्लोेकार्थ : — ] जो (समिति) मुनियोंको शीलका ( – चारित्रका) मूल है, जो
त्रस जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके घातसे समस्त प्रकारसे दूर है, जो भवदावानलके
परितापरूपी क्लेशको शान्त करनेवाली तथा समस्त सुकृतरूपी धान्यकी राशिको (पोषण
देकर) सन्तोष देनेवाली मेघमाला है, ऐसी यह समिति जयवन्त है ।८२।
[श्लोेकार्थ : — ] यहाँ (विश्वमें) यह निश्चित है कि इस जन्मार्णवमें (भवसागरमें)
समितिरहित कामरोगातुर ( – इच्छारूपी रोगसे पीड़ित) जनोंका जन्म होता है । इसलिये हे
मुनि ! तू अपने मनरूपी घरमें इस सुमुक्तिरूपी सुन्दर स्त्रीके लिये निवासगृह (क मरा) रख
(अर्थात् तू मुक्तिका चिंतवन कर) ।८३।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-