स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति । व्यवहार- समितिस्वरूपमुक्त म् । इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते । अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परम- धर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणतिः समितिः । अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादि- परमधर्माणां संहतिः समितिः । इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चय- समितिमुपयातु भव्य इति । पर [दिवा ] दिनमें [युगप्रमाणं ] धुरा-प्रमाण [पुरतः ] आगे [खलु अवलोकन् ] देखकर [गच्छति ] चलता है, [तस्य ] उसे [ईर्यासमितिः ] ईर्यासमिति [भवेत् ] होती है ।
जो ❃परमसंयमी गुरुयात्रा (गुरुके पास जाना), देवयात्रा (देवके पास जाना) आदि प्रशस्त प्रयोजनका उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर तथा जङ्गम प्राणियोंकी परिरक्षा(समस्त प्रकारसे रक्षा)के हेतु दिनमें ही चलता है, उस परमश्रमणको ईर्यासमिति होती है । (इसप्रकार) व्यवहारसमितिका स्वरूप कहा गया ।
अब निश्चयसमितिका स्वरूप कहा जाता है : अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्माके प्रति सम्यक् ‘‘इति’’ ( – गति) अर्थात् परिणति वह समिति है; अथवा, निज परमतत्त्वमें लीन सहज परमज्ञानादिक परमधर्मोंकी संहति ( – मिलन, संगठन) वह समिति है ।
इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समितिभेद जानकर उनमें ( – उन दो में से) परमनिश्चयसमितिको भव्य जीव प्राप्त करो ।
[अब ६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ] ❃ परमसंयमी मुनिको (अर्थात् मुनियोग्य शुद्धपरिणतिवाले मुनिको) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो
कहलाता [इस ईर्यासमितिकी भाँति अन्य समितियोंका भी समझ लेना । ]