Niyamsar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ ११९
अत्रेर्यासमितिस्वरूपमुक्त म्
यः परमसंयमी गुरुदेवयात्रादिप्रशस्तप्रयोजनमुद्दिश्यैकयुगप्रमाणं मार्गम् अवलोकयन्

स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति व्यवहार- समितिस्वरूपमुक्त म् इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परम- धर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणतिः समितिः अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादि- परमधर्माणां संहतिः समितिः इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चय- समितिमुपयातु भव्य इति पर [दिवा ] दिनमें [युगप्रमाणं ] धुरा-प्रमाण [पुरतः ] आगे [खलु अवलोकन् ] देखकर [गच्छति ] चलता है, [तस्य ] उसे [ईर्यासमितिः ] ईर्यासमिति [भवेत् ] होती है

टीका :यहाँ (इस गाथामें) ईर्यासमितिका स्वरूप कहा है

जो परमसंयमी गुरुयात्रा (गुरुके पास जाना), देवयात्रा (देवके पास जाना) आदि प्रशस्त प्रयोजनका उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर तथा जङ्गम प्राणियोंकी परिरक्षा(समस्त प्रकारसे रक्षा)के हेतु दिनमें ही चलता है, उस परमश्रमणको ईर्यासमिति होती है (इसप्रकार) व्यवहारसमितिका स्वरूप कहा गया

अब निश्चयसमितिका स्वरूप कहा जाता है : अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्माके प्रति सम्यक् ‘‘इति’’ (गति) अर्थात् परिणति वह समिति है; अथवा, निज परमतत्त्वमें लीन सहज परमज्ञानादिक परमधर्मोंकी संहति (मिलन, संगठन) वह समिति है

इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समितिभेद जानकर उनमें (उन दो में से) परमनिश्चयसमितिको भव्य जीव प्राप्त करो

[अब ६१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ] परमसंयमी मुनिको (अर्थात् मुनियोग्य शुद्धपरिणतिवाले मुनिको) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो

(हठ रहित) ईर्यासम्बन्धी (गमनसम्बन्धी; चलनेसम्बन्धी) शुभोपयोग वह व्यवहार ईर्यासमिति है
शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है; वह शुभोपयोग तो व्यवहार समिति भी नहीं
कहलाता [इस ईर्यासमितिकी भाँति अन्य समितियोंका भी समझ लेना
]