Niyamsar (Hindi). Gatha: 61.

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‘‘मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।।’’
तथा हि
(हरिणी)
त्यजतु भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं
निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि
स्थितिमविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां
न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसतामिदम्
।।८०।।
पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ।।६१।।
प्रासुकमार्गेण दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु
गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ।।६१।।
‘‘[गाथार्थ : ] यदि परद्रव्य - परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्वको प्राप्त होऊँ मैं
तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये (परद्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है ’’
और (६०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] भव्य जीव भवभीरुताके कारण परिग्रहविस्तारको छोड़ो और
निरुपम सुखके आवासकी प्राप्ति हेतु निज आत्मामें अविचल, सुखाकार (सुखमयी) तथा
जगतजनोंको दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो और यह (निजात्मामें अचल सुखात्मक
स्थिति करनेका कार्य) सत्पुरुषोंको कोई महा आश्चर्यकी बात नहीं है, असत्पुरुषोंको
आश्चर्यकी बात है
८०
गाथा : ६१ अन्वयार्थ :[श्रमणः ] जो श्रमण [प्रासुकमार्गेण ] प्रासुक मार्ग
आवास = निवासस्थान; घर; आयतन
मुनिराज चलते मार्ग दिनमें देख आगेकी मही
प्रासुक धुरा जितनी, उन्हें ही समिति ईर्या है कही ।।६१।।
११८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-