इह हि पंचमव्रतस्वरूपमुक्त म् ।
सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परम-
जिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयव्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशति-
परिग्रहपरित्याग एव परंपरया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमव्रतमिति ।
तथा चोक्तं समयसारे —
(अर्थात् जिस भावनामें परकी अपेक्षा नहीं है ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित)
[सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः ] सर्व परिग्रहोंका त्याग (सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी शुभभाव)
वह, [चारित्रभरं वहतः ] २चारित्रभर वहन करनेवालेको [पंचमव्रतम् इति भणितम् ]
पाँचवाँ व्रत कहा है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) पाँचवें व्रतका स्वरूप कहा गया है ।
सकल परिग्रहके परित्यागस्वरूप निज कारणपरमात्माके स्वरूपमें अवस्थित
(स्थिर हुए) परमसंयमियोंको — परम जिनयोगीश्वरोंको — सदैव निश्चयव्यवहारात्मक
सुन्दर चारित्रभर वहन करनेवालोंको, बाह्य - अभ्यंतर चौवीस प्रकारके परिग्रहका परित्याग
ही ३परम्परासे पंचमगतिके हेतुभूत ऐसा पाँचवाँ व्रत है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (२०८वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि : —
शुभोपयोग वह व्यवहार अपरिग्रहव्रत कहलाता है । शुद्ध परिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित
होता है; वह शुभोपयोग तो व्यवहार-व्रत भी नहीं कहलाता । [इस पाँचवें व्रतकी भाँति अन्य व्रतोंका
भी समझ लेना ।]
२ – चारित्रभर = चारित्रका भार; चारित्रसमूह; चारित्रकी अतिशयता ।
३ – शुभोपयोगरूप व्यवहारव्रत शुद्धोपयोगका हेतु है और शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु है ऐसा गिनकर यहाँ
उपचारसे व्यवहारव्रतको मोक्षका परम्पराहेतु कहा है । वास्तवमें तो शुभोपयोगी मुनिको मुनियोग्य
शुद्धपरिणति ही (शुद्धात्मद्रव्यका अवलम्बन करती है इसलिये) विशेष शुद्धिरूप शुद्धोपयोगका हेतु
होती है और वह शुद्धोपयोग मोक्षका हेतु होता है । इसप्रकार इस शुद्धपरिणतिमें रहे हुए मोक्ष़के
परम्पराहेतुपनेका आरोप उसके साथ रहनेवाले शुभोपयोगमें करके व्यवहारव्रतको मोक्षका परम्पराहेतु
कहा जाता है । जहाँ शुद्धपरिणति ही न हो वहाँ वर्तते हुए शुभोपयोगमें मोक्षके परम्पराहेतुपनेका
आरोप भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि जहाँ मोक्षका यथार्थ परम्पराहेतु प्रगट ही नहीं हुआ है —
विद्यमान ही नहीं है वहाँ शुभोपयोगमें आरोप किसका किया जाये ?
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ ११७