Niyamsar (Hindi). Gatha: 60.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि- त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण- शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति

(मालिनी)
भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूतिं
स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम्
सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम्
।।9।।
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ।।६०।।
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम्
पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ।।६०।।

सुन्दर कामिनियोंके मनोहर अङ्गके निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलताके चित्तवांछाकेपरित्यागसे, अथवा पुरुषवेदोदय नामका जो नोकषायका तीव्र उदय उसके कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुनसंज्ञाके परित्यागस्वरूप शुभ परिणामसे, ब्रह्मचर्यव्रत होता है

[अब ५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]

[श्लोेकार्थ :] कामिनियोंकी जो शरीरविभूति उस विभूतिका, हे कामी पुरुष ! यदि तू मनमें स्मरण करता है, तो मेरे वचनसे तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्त्वकोनिज स्वरूपकोछोड़कर तू किस कारण विपुल मोहको प्राप्त हो रहा है ! ७९

गाथा : ६० अन्वयार्थ :[निरपेक्षभावनापूर्वम् ] निरपेक्ष भावनापूर्वक मुनिको मुनित्वोचित निरपेक्ष शुद्ध परिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी

निरपेक्ष - भाव संयुक्त सब ही ग्रन्थके परित्यागका
परिणाम है व्रत पंचवां चारित्रभर वहनारका ।।६०।।