कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि-
त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण-
शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति ।
(मालिनी)
भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूतिं
स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम् ।
सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ।।७9।।
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ।।६०।।
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।
पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ।।६०।।
सुन्दर कामिनियोंके मनोहर अङ्गके निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलताके —
चित्तवांछाके — परित्यागसे, अथवा पुरुषवेदोदय नामका जो नोकषायका तीव्र उदय उसके
कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुनसंज्ञाके परित्यागस्वरूप शुभ परिणामसे, ब्रह्मचर्यव्रत होता है ।
[अब ५९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ : — ] कामिनियोंकी जो शरीरविभूति उस विभूतिका, हे कामी पुरुष !
यदि तू मनमें स्मरण करता है, तो मेरे वचनसे तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता
है कि सहज परमतत्त्वको — निज स्वरूपको — छोड़कर तू किस कारण विपुल मोहको प्राप्त
हो रहा है ! ७९।
गाथा : ६० अन्वयार्थ : — [निरपेक्षभावनापूर्वम् ] १निरपेक्ष भावनापूर्वक
११६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निरपेक्ष - भाव संयुक्त सब ही ग्रन्थके परित्यागका ।
परिणाम है व्रत पंचवां चारित्रभर वहनारका ।।६०।।
१ – मुनिको मुनित्वोचित निरपेक्ष शुद्ध परिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) सर्वपरिग्रहत्यागसम्बन्धी