Niyamsar (Hindi). Gatha: 59.

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वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा
विस्मृतं वा परद्रव्यं
द्रष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति
(आर्या)
आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह
स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ।।७८।।
दट्ठूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं ।।9।।
द्रष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु
मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम् ।।9।।
चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम्
है; जो मनुष्यके संचार रहित, वनस्पतिसमूह, बेलों और वृक्षोंके झुंड आदिसे खचाखच भरा
हो वह अरण्य है
ऐसे ग्राम, नगर या अरण्यमें अन्यसे छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा
भूली हुई परवस्तुको देखकर उसके स्वीकारपरिणामका (अर्थात् उसे अपनी बनानेग्रहण
करनेके परिणामका) जो परित्याग करता है, उसे वास्तवमें तीसरा व्रत होता है
[अब ५८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] यह उग्र अचौर्य इस लोकमें रत्नोंके संचयको आकर्षित करता
है और (परलोकमें) स्वर्गकी स्त्रियोंके सुखका कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्रीके
सुखका कारण है
७८
गाथा : ५९ अन्वयार्थ :[स्त्रीरूपं दृष्टवा ] स्त्रियोंका रूप देखकर [तासु ]
उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते ] वांछाभावकी निवृत्ति वह [अथवा ] अथवा [मैथुनसंज्ञा-
विवर्जितपरिणामः ]
मैथुनसंज्ञारहित जो परिणाम वह [तुरीयव्रतम् ] चौथा व्रत है
टीका :यह, चौथे व्रतके स्वरूपका कथन है
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ ११५
जो देख रमणी-रूप वांछाभाव उसमें छोड़ता
परिणाम मैथुन - संज्ञ - वर्जित व्रत चतुर्थ यही कहा ।।५९।।