Niyamsar (Hindi). Gatha: 58.

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(शालिनी)
वक्ति व्यक्तं सत्यमुच्चैर्जनो यः
स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात
अस्मिन् पूज्यः सर्वदा सर्वसद्भिः
सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम्
।।७७।।
गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ।।५८।।
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम्
यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ।।५८।।
तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं
है ), उसे दूसरा व्रत होता है
[अब ५७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोेकार्थ :] जो पुरुष अति स्पष्टरूपसे सत्य बोलता है, वह स्वर्गकी स्त्रियोंके
अनेक भोगोंका एक भागी होता है (अर्थात् वह परलोकमें अनन्यरूपसे देवांगनाओंके
बहुत-से भोग प्राप्त करता है ) और इस लोकमें सर्वदा सर्व सत्पुरुषोंका पूज्य बनता है
वास्तवमें क्या सत्यसे अन्य कोई (बढ़कर) व्रत है ? ७७
गाथा : ५८ अन्वयार्थ :[ग्रामे वा ] ग्राममें, [नगरे वा ] नगरमें [अरण्ये वा ]
या वनमें [परम् अर्थम् ] परायी वस्तुको [प्रेक्षयित्वा ] देखकर [यः ] जो (साधु)
[ग्रहणभावं ] उसे ग्रहण करनेके भावको [मुंचति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको
[तृतीयव्रतं ] तीसरा व्रत [भवति ] है
टीका :यह, तीसरे व्रतके स्वरूपका कथन है
जिसके चौतरफ बाड़ हो वह ग्राम (गाँव) है; जो चार द्वारोंसे सुशोभित हो वह नगर
११४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कानन, नगर या ग्राममें जो देख पर वस्तु उसे-
-छोड़े ग्रहणके भाव, होता तीसरा व्रत है उसे
।।५८।।