Niyamsar (Hindi). Gatha: 57.

< Previous Page   Next Page >


Page 113 of 388
PDF/HTML Page 140 of 415

 

background image
(मालिनी)
त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतुः
सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः
स जयति जिनधर्मः स्थावरैकेन्द्रियाणां
विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः
।।७६।।
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं
जो पजहदि साहु सया बिदियवदं होइ तस्सेव ।।५७।।
रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं
यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ।।५७।।
सत्यव्रतस्वरूपाख्यानमेतत
अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा जायते
सदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणामं परित्यजति तस्य द्वितीयव्रतं भवति इति
[श्लोेकार्थ :] त्रसघातके परिणामरूप अंधकारके नाशका जो हेतु है, सकल
लोकके जीवसमूहको जो सुखप्रद है, स्थावर एकेन्द्रिय जीवोंके विविध वधसे जो बहुत दूर
है और सुन्दर सुखसागरका जो पूर है, वह जिनधर्म जयवन्त वर्तता है
७६
गाथा : ५७ अन्वयार्थ :[रागेण वा ] रागसे, [द्वेषेण वा ] द्वेषसे [मोहेन वा ]
अथवा मोहसे होनेवाले [मृषाभाषापरिणामं ] मृषा भाषाके परिणामको [यः साधुः ] जो साधु
[प्रजहाति ] छोड़ता है, [तस्य एव ] उसीको [सदा ] सदा [द्वितीयव्रतं ] दूसरा व्रत
[भवति ] है
टीका :यह, सत्यव्रतके स्वरूपका कथन है
यहाँ (ऐसा कहा है कि), सत्यका प्रतिपक्ष (अर्थात् सत्यसे विरुद्ध परिणाम) वह
मृषापरिणाम हैं; वे (असत्य बोलनेके परिणाम) रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे होते हैं; जो
साधु
आसन्नभव्य जीवउन परिणामोंका परित्याग करता है (समस्त प्रकारसे छोड़ता
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ ११३
जो राग, द्वेष रु मोहसे परिणाम हो मृष-भाषका
छोड़े उसे जो साधु, होता है उसे व्रत दूसरा ।।५७।।