Niyamsar (Hindi).

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११२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति अत एव
प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति
तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः
(शिखरिणी)
‘‘अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं
न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ
ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं
भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः
।।’’

तथा हि है उनका मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम बिना सावद्यपरिहार (दोषका त्याग) नहीं होता इसीलिये, प्रयत्नपरायणको हिंसापरिणतिका अभाव होनेसे अहिंसाव्रत होता है

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामीने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें श्री नमिनाथ भगवानकी स्तुति करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :

‘‘[श्लोेकार्थ : ] जगतमें विदित है कि जीवोंकी अहिंसा परम ब्रह्म है जिस आश्रमकी विधिमें लेश भी आरंभ है वहाँ (उस आश्रममें अर्थात् सग्रंथपनेमें) वह अहिंसा नहीं होती इसलिये उसकी सिद्धिके हेतु, (हे नमिनाथ प्रभु !) परम करुणावन्त ऐसे आपश्रीने दोनों ग्रंथको छोड़ दिया (द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारके परिग्रहको छोड़कर निर्ग्रन्थपना अंगीकार किया), विकृत वेश तथा परिग्रहमें रत न हुए ’’

और (५६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : मुनिको (मुनित्वोचित्त) शुद्धपरिणतिके साथ वर्तनेवाला जो (हठ रहित) देहचेष्टादिकसम्बन्धी शुभोपयोग वह व्यवहार प्रयत्न है [शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है; वह शुभोपयोग तो

व्यवहार-प्रयत्न भी नहीं कहलाता ]