हि देहे सति ह्याहारग्रहणं भवति; आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव । अत एव संयमिनां मलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम् । तत्र स्थाने शरीरधर्मं कृत्वा पश्चात्तस्मात्स्थानादुत्तरेण कतिचित् पदानि गत्वा ह्युदङ्मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि मुक्तिलक्ष्मीका वरण करेगा) ।८७।
गाथा : ६५ अन्वयार्थ : — [परोपरोधेन रहिते ] जिसे परके उपरोध रहित ( – दूसरेसे रोका न जाये ऐसे), [गूढे ] गूढ़ और [प्रासुकभूमिप्रदेशे ] प्रासुक भूमिप्रदेशमें [उच्चारादित्यागः ] मलादिका त्याग हो, [तस्य ] उसे [प्रतिष्ठासमितिः ] प्रतिष्ठापन समिति [भवेत् ] होती है ।
शुद्धनिश्चयसे जीवको देहका अभाव होनेसे अन्नग्रहणरूप परिणति नहीं है । व्यवहारसे (-जीवको) देह है; इसलिये उसीको देह होनेसे आहारग्रहण है; आहारग्रहणके कारण मलमूत्रादिक संभवित हैं ही । इसीलिये संयमियोंको मलमूत्रादिकके उत्सर्गका ( – त्यागका) स्थान जन्तुरहित तथा परके उपरोध रहित होता है । उस स्थान पर शरीरधर्म करके फि र जो परमसंयमी उस स्थानसे उत्तर दिशामें कुछ डग जाकर उत्तरमुख खड़े रहकर, कायकर्मोंका ( – शरीरकी क्रियाओंका), संसारके कारणभूत हों ऐसे परिणामका