संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेर्निमित्तं, स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमी
मुहुर्मुहुः कलेवरस्याप्यशुचित्वं वा परिभावयति, तस्य खलु प्रतिष्ठापनसमितिरिति । नान्येषां
स्वैरवृत्तीनां यतिनामधारिणां काचित् समितिरिति ।
(मालिनी)
समितिरिह यतीनां मुक्ति साम्राज्यमूलं
जिनमतकुशलानां स्वात्मचिंतापराणाम् ।
मधुसखनिशितास्त्रव्रातसंभिन्नचेतः
सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात् ।।८८।।
(हरिणी)
समितिसमितिं बुद्ध्वा मुक्त्यङ्गनाभिमतामिमां
भवभवभयध्वान्तप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम् ।
मुनिप तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा
जिनमततपःसिद्धं यायाः फलं किमपि ध्रुवम् ।।८9।।
तथा संसारके निमित्तभूत मनका उत्सर्ग करके, निज आत्माको अव्यग्र ( – एकाग्र) होकर
ध्याता है अथवा पुनः पुनः कलेवरकी ( – शरीरकी) भी अशुचिता सर्व ओरसे भाता है,
उसे वास्तवमें प्रतिष्ठापनसमिति होती है । दूसरे स्वच्छन्दवृत्तिवाले यतिनामधारियोंको कोई
समिति नहीं होती ।
[अब ६५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] जिनमतमें कुशल और स्वात्मचिन्तनमें परायण ऐसे यतिओंको
यह समिति मुक्तिसाम्राज्यका मूल है । कामदेवके तीक्ष्ण अस्त्रसमूहसे भिदे हुए हृदयवाले
मुनिगणोंको वह (समिति) गोचर होती ही नहीं ।८८।
[श्लोेकार्थ : — ] हे मुनि ! समितियोंमेंकी इस समितिको — कि जो मुक्तिरूपी
स्त्रीको प्यारी है, जो भवभवके भयरूपी अंधकारको नष्ट करनेके लिये पूर्ण चन्द्रकी प्रभा
समान है तथा तेरी सत् - दीक्षारूपी कान्ताकी ( – सच्ची दीक्षारूपी प्रिय स्त्रीकी) सखी है
उसे — अब प्रमोदसे जानकर, जिनमतकथित तपसे सिद्ध होनेवाले ऐसे किसी (अनुपम)
ध्रुव फलको तू प्राप्त करेगा ।८९।
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १२९