(द्रुतविलंबित)
समितिसंहतितः फलमुत्तमं
सपदि याति मुनिः परमार्थतः ।
न च मनोवचसामपि गोचरं
किमपि केवलसौख्यसुधामयम् ।।9०।।
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं ।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।।६६।।
कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावनाम् ।
परिहारो मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ।।६६।।
व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् ।
क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् । मोहो
[श्लोेकार्थ : — ] समितिकी संगति द्वारा वास्तवमें मुनि मन – वाणीको भी अगोचर
( – मनसे अचिन्त्य और वाणीसे अकथ्य) ऐसा कोई केवलसुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र
प्राप्त करता है । ९० ।
गाथा : ६६ अन्वयार्थ : — [कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ]
कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावोंके [परिहारः ] परिहारको [व्यवहारनयेन ]
व्यवहारनयसे [मनोगुप्तिः ] मनोगुप्ति [परिकथिता ] कहा है ।
टीका : — यह, व्यवहार ❃मनोगुप्तिके स्वरूपका कथन है ।
क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायोंसे क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता
❃ मुनिको मुनित्वोचित शुद्धपरिणतिके साथ वर्तता हुआ जो (हठ रहित) मन – आश्रित, वचन – आश्रित अथवा
काय – आश्रित शुभोपयोग उसे व्यवहार गुप्ति कहा जाता है, क्योंकि शुभोपयोगमें मन, वचन या कायके
साथ अशुभोपयोगरूप युक्तता नहीं है । शुद्धपरिणति न हो वहाँ शुभोपयोग हठ सहित होता है । वह
शुभोपयोग तो व्यवहारगुप्ति भी नहीं कहलाता ।
कालुष्य, संज्ञा, मोह, राग, द्वेषके परिहारसे ।
होती मनोगुप्ति श्रमणको कथन नय व्यवहारसे ।।६६।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-