Niyamsar (Hindi). Gatha: 67.

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दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा रागः
प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो
द्वेषः इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति
(वसंततिलका)
गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थ-
चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य
बाह्यान्तरङ्गपरिषङ्गविवर्जितस्य
श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य
।।9।।
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ।।६७।।
है दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे (दो) भेदोंके कारण मोह दो प्रकारका है आहारसंज्ञा,
भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा ऐसे (चार) भेदोंके कारण संज्ञा चार प्रकारकी है
प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे (दो) भेदोंके कारण राग दो प्रकारका है असह्य जनोंके
प्रति अथवा असह्य पदार्थसमूहोंके प्रति वैरका परिणाम वह द्वेष है इत्यादि
अशुभपरिणामप्रत्ययोंका परिहार ही (अर्थात् अशुभपरिणामरूप भावपापास्रवोंका त्याग ही)
व्यवहारनयके अभिप्रायसे मनोगुप्ति है
[अब ६६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] जिसका मन परमागमके अर्थोंके चिन्तनयुक्त है, जो विजितेन्द्रिय
है (अर्थात् जिसने इन्द्रियोंको विशेषरूपसे जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित
है और जो श्रीजिनेन्द्रचरणके स्मरणसे संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है
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प्रत्यय = आस्रव; कारण (संसारके कारणोंसे आत्माका गोपनरक्षण करना सो गुप्ति है भावपापास्रव
तथा भावपुण्यास्रव संसारके कारण हैं )
जो पापकारण चोर, भोजन, राज, दाराकी कथा
एवं मृषा - परिहार यह लक्षण वचनकी गुप्तिका ।।६७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १३१