(अनुष्टुभ्)
‘‘एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः ।
एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ।।’’
तथा हि —
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा वाचं भवभयकरीं भव्यजीवः समस्तां
ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् ।
पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानन्दसौख्याकरीं तां
प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ।।9२।।
बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया ।
कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति ।।६८।।
बंधनछेदनमारणाकुंचनानि तथा प्रसारणादीनि ।
कायक्रियानिवृत्तिः निर्दिष्टा कायगुप्तिरिति ।।६८।।
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार बहिर्वचनोंको त्यागकर अन्तर्वचनोंको अशेषतः
(सम्पूर्णरूपसे) त्यागना । — यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) है — कि जो योग
परमात्माका प्रदीप है (अर्थात् परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है ) ।’’
और (इस ६७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] भव्यजीव भवभयकी करनेवाली समस्त वाणीको छोड़कर शुद्ध
सहज - विलसते चैतन्यचमत्कारका एकका ध्यान करके, फि र, पापरूपी, तिमिरसमूहको नष्ट
करके सहजमहिमावंत आनन्दसौख्यकी खानरूप ऐसी उस मुक्तिको अतिशयरूपसे प्राप्त
करता है ।९२।
गाथा : ६८ अन्वयार्थ : — [बंधनछेदनमारणाकुंचनानि ] बंधन, छेदन, मारण
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १३३
मारण, प्रतारण, बन्ध, छेदन और आकुञ्चन सभी ।
करते सदा परिहार मुनिजन, गुप्ति पालें कायकी ।।६८।।