कायव्यापारः । छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया । मारण- स्याप्यन्तरंगहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरंगकारणं कस्यापि कायविकृतिः । आकुंचनप्रसारणादिहेतुः संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्घातः । एतासां कायक्रियाणां निवृत्तिः कायगुप्तिरिति ।
किसी पुरुषको बन्धनका अन्तरंग निमित्त कर्म है, बन्धनका बहिरंग हेतु किसीका कायव्यापार है; छेदनका भी अन्तरंग कारण कर्मोदय है, बहिरंग कारण प्रमत्त जीवकी कायक्रिया है; मारणका भी अन्तरंग हेतु आंतरिक (निकट) सम्बन्धका (आयुष्यका) क्षय है, बहिरंग कारण किसीकी कायविकृति है; आकुंचन, प्रसारण आदिका हेतु संकोचविस्तारादिकके हेतुभूत समुद्घात है । — इन कायक्रियाओंकी निवृत्ति वह कायगुप्ति है ।
[श्लोेकार्थ : — ] कायविकारको छोड़कर जो पुनः पुनः शुद्धात्माकी संभावना (सम्यक् भावना) करता है, उसीका जन्म संसारमें सफल है ।९३।