अत्र कायगुप्तिस्वरूपमुक्त म् ।
कस्यापि नरस्य तस्यान्तरंगनिमित्तं कर्म, बंधनस्य बहिरंगहेतुः कस्यापि
कायव्यापारः । छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया । मारण-
स्याप्यन्तरंगहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरंगकारणं कस्यापि कायविकृतिः । आकुंचनप्रसारणादिहेतुः
संहरणविसर्पणादिहेतुसमुद्घातः । एतासां कायक्रियाणां निवृत्तिः कायगुप्तिरिति ।
(अनुष्टुभ्)
मुक्त्वा कायविकारं यः शुद्धात्मानं मुहुर्मुहुः ।
संभावयति तस्यैव सफलं जन्म संसृतौ ।।9३।।
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती ।
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ।।६9।।
( – मार डालना), आकुञ्चन ( – संकोचना) [तथा ] तथा [प्रसारणादीनि ] प्रसारण
( – विस्तारना) इत्यादि [कायक्रियानिवृत्तिः ] कायक्रियाओंकी निवृत्तिको [कायगुप्तिः इति
निर्दिष्टा ] कायगुप्ति कहा है ।
टीका : — यहाँ कायगुप्तिका स्वरूप कहा है ।
किसी पुरुषको बन्धनका अन्तरंग निमित्त कर्म है, बन्धनका बहिरंग हेतु किसीका
कायव्यापार है; छेदनका भी अन्तरंग कारण कर्मोदय है, बहिरंग कारण प्रमत्त जीवकी
कायक्रिया है; मारणका भी अन्तरंग हेतु आंतरिक (निकट) सम्बन्धका (आयुष्यका) क्षय
है, बहिरंग कारण किसीकी कायविकृति है; आकुंचन, प्रसारण आदिका हेतु
संकोचविस्तारादिकके हेतुभूत समुद्घात है । — इन कायक्रियाओंकी निवृत्ति वह कायगुप्ति है ।
[अब ६८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] कायविकारको छोड़कर जो पुनः पुनः शुद्धात्माकी संभावना
(सम्यक् भावना) करता है, उसीका जन्म संसारमें सफल है ।९३।
हो रागकी निवृत्ति मनसे नियत मनगुप्ति वही ।
होवे असत्य - निवृत्ति अथवा मौन वचगुप्ति कही ।।६९।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-