Niyamsar (Hindi).

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या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम्
अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ।।9।।
निश्चयनयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम्
सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः हे
शिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च
मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद् अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञानागोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिर्न भवति इति
निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्त म्
(शार्दूलविक्रीडित)
शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः
शुद्धाशुद्धनयातिरिक्त मनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम्
प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा
जीवन्मुक्ति मुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः
।।9।।
गाथा : ६९ अन्वयार्थ :[मनसः ] मनमेंसे [या ] जो [रागादिनिवृत्तिः ]
रागादिकी निवृत्ति [ताम् ] उसे [मनोगुप्तिम् ] मनोगुप्ति [जानीहि ] जान
[अलीकादिनिवृत्तिः ] असत्यादिकी निवृत्ति [वा ] अथवा [मौनं वा ] मौन [वाग्गुप्तिः
भवति ]
सो वचनगुप्ति है
टीका :यह, निश्चयनयसे मनोगुप्ति और वचनगुप्तिकी सूचना है
सकल मोहरागद्वेषके अभावके कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूपमें सम्यक्रूपसे
अवस्थित रहना ही निश्चयमनोगुप्ति है हे शिष्य ! तू उसे वास्तवमें अचलित मनोगुप्ति जान
समस्त असत्य भाषाका परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है मूर्तद्रव्यको
चेतनाका अभाव होनेके कारण और अमूर्तद्रव्य इन्द्रियज्ञानसे अगोचर होनेके कारण दोनोंके
प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती
इसप्रकार निश्चयवचनगुप्तिका स्वरूप कहा गया
[अब ६९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] पापरूपी अटवीको जलानेमें अग्नि समान ऐसा योगितिलक
(मुनिशिरोमणि) प्रशस्त - अप्रशस्त मन - वाणीके समुदायको छोड़कर आत्मनिष्ठामें
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १३५