कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती ।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिद्दिट्ठा ।।७०।।
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिरिति निर्दिष्टा ।।७०।।
निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् ।
सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव
गुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणां त्रसानां च हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा । परमसंयमधरः परमजिन-
योगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति ।
तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने —
परायण रहता हुआ, शुद्धनय और अशुद्धनयसे रहित ऐसे अनघ ( – निर्दोष) चैतन्यमात्र
चिन्तामणिको प्राप्त करके, अनन्तचतुष्टयात्मकपनेके साथ सर्वदा स्थित ऐसी जीवन्मुक्तिको प्राप्त
करता है । ९४ ।
गाथा : ७० अन्वयार्थ : — [कायक्रियानिवृत्तिः ] कायक्रियाओंकी निवृत्तिरूप
[कायोत्सर्गः ] कायोत्सर्ग [शरीरके गुप्तिः ] शरीरसम्बन्धी गुप्ति है; [वा ] अथवा
[हिंसादिनिवृत्तिः ] हिंसादिकी निवृत्तिको [शरीरगुप्तिः इति ] शरीरगुप्ति [निर्दिष्टा ] कहा है ।
टीका : — यह, निश्चयशरीरगुप्तिके स्वरूपका कथन है ।
सर्व जनोंको कायासम्बन्धी बहु क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है;
वही गुप्ति (अर्थात् कायगुप्ति) है । अथवा पाँच स्थावरोंकी और त्रसोंकी हिंसानिवृत्ति सो
कायगुप्ति है । जो परमसंयमधर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीरमें अपने
(चैतन्यरूप) शरीरसे प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंदमूर्ति ही ( – अकंप दशा ही)
निश्चयकायगुप्ति है ।
इसीप्रकार श्री तत्त्वानुशासनमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
१३६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कायिक क्रिया निवृत्ति कायोत्सर्ग तनकी गुप्ति है ।
हिंसादिसे निवृत्ति भी होती नियत तनगुप्ति है ।।७०।।