Niyamsar (Hindi). Gatha: 71.

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(अनुष्टुभ्)
‘‘उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम्
स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः
व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ।।9।।
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ।।७१।।
घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः
चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईद्रशा भवन्ति ।।७१।।
भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्य स्वरूपाख्यानमेतत
आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि घनरूपाणि सान्द्रीभूतात्मकानि ज्ञानदर्शना-
‘‘[श्लोेकार्थ : ] कायक्रियाओंको तथा भवके कारणभूत (विकारी) भावको
छोड़कर अव्यग्ररूपसे निज आत्मामें स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है ’’
और (इस ७०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोेकार्थ : ] अपरिस्पन्दात्मक ऐसे मुझे परिस्पन्दात्मक शरीर व्यवहारसे है;
इसलिये मैं शरीरकी विकृतिको छोड़ता हूँ ९५
गाथा : ७१ अन्वयार्थ :[घनघातिकर्मरहिताः ] घनघातिकर्म रहित, [केवलज्ञानादि-
परमगुणसहिताः ] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः ] चौंतीस
अतिशय संयुक्त;
[ईद्दशाः ] ऐसे, [अर्हन्तः ] अर्हन्त [भवन्ति ] होते हैं
टीका :यह, भगवान अर्हत् परमेश्वरके स्वरूपका कथन है
[भगवन्त अर्हन्त कैसे होते हैं ? ] (१) जो आत्मगुणोंके घातक घातिकर्म हैं और
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १३७
चौंतीस अतिशययुक्त, अरु घनघाति कर्म विमुक्त हैं
अर्हंत श्री कैवल्यज्ञानादिक परमगुण युक्त हैं ।।७१।।