वरणान्तरायमोहनीयानि तैर्विरहितास्तथोक्ताः । प्रागुप्तघातिचतुष्कप्रध्वंसनासादितत्रैलोक्य-
प्रक्षोभहेतुभूतसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलशक्ति केवलसुखसहिताश्च । निःस्वेद-
निर्मलादिचतुस्त्रिंशदतिशयगुणनिलयाः । ईद्रशा भवन्ति भगवन्तोऽर्हन्त इति ।
(मालिनी)
जयति विदितगात्रः स्मेरनीरेजनेत्रः
सुकृतनिलयगोत्रः पंडिताम्भोजमित्रः ।
मुनिजनवनचैत्रः कर्मवाहिन्यमित्रः
सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः ।।9६।।
(मालिनी)
स्मरकरिमृगराजः पुण्यकंजाह्निराजः
सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः ।
जो घन अर्थात् गाढ़ हैं — ऐसे जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्म उनसे
रहित वर्णन किये गये; (२) जो पूर्वमें बोये गये चार घातिकर्मोंके नाशसे प्राप्त होते हैं ऐसे,
तीन लोकको ❃
प्रक्षोभके हेतुभूत सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान, केवलदर्शन,
केवलशक्ति ( – वीर्य, बल) और केवलसुख सहित; तथा (३) स्वेदरहित, मलरहित इत्यादि
चौंतीस अतिशयगुणोंके निवासस्थानरूप; — ऐसे, भगवन्त अर्हंत होते हैं ।
[अब ७१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] प्रख्यात (अर्थात् परमौदारिक) जिनका शरीर है, प्रफु ल्लित
कमल जैसे जिनके नेत्र हैं, पुण्यका निवासस्थान (अर्थात् तीर्थंकरपद) जिनका गोत्र है,
पण्डितरूपी कमलोंको (विकसित करनेके लिये) जो सूर्य हैं, मुनिजनरूपी वनको जो चैत्र
हैं (अर्थात् मुनिजनरूपी वनको खिलानेमें जो वसन्तऋतु समान हैं ), कर्मकी सेनाके जो
शत्रु हैं और सर्वको हितरूप जिनका चरित्र है, वे श्री सुसीमा माताके सुपुत्र (श्री पद्मप्रभ
तीर्थंकर) जयवन्त हैं । ९६ ।
[श्लोेकार्थ : — ] जो कामदेवरूपी हाथीको (मारनेके लिये) सिंह हैं, जो
❃ प्रक्षोभका अर्थ ८५वें पृष्ठकी टिप्पणीमें देखें ।
१३८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-