पदविनतयमीशः प्रास्तकीनाशपाशः ।
जयति जगदधीशः चारुपद्मप्रभेशः ।।१००।।
[श्लोेकार्थ : — ] कामदेवरूपी पर्वतके लिये (अर्थात् उसे तोड़ देनेमें) जो (वज्रधर) इन्द्र समान हैं, कान्त (मनोहर) जिनका कायप्रदेश है, मुनिवर जिनके चरणमें नमते हैं, यमके पाशका जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वनको (जलानेके लिये) जो अग्नि हैं, सर्व दिशाओंमें जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगतके जो अधीश (नाथ) हैं, वे सुन्दर पद्मप्रभेश जयवन्त हैं ।१००।
गाथा : ७२ अन्वयार्थ : — [नष्टाष्टकर्मबन्धाः ] आठ कर्मोंके बन्धको जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, [अष्टमहागुणसमन्विताः ] आठ महागुणों सहित, [परमाः ] परम, [लोकाग्रस्थिताः ] लोकके अग्रमें स्थित और [नित्याः ] नित्य; — [ईद्रशाः ] ऐसे, [ते सिद्धाः ] वे सिद्ध [भवन्ति ] होते हैं ।
टीका : — सिद्धिके परम्पराहेतुभूत ऐसे भगवन्त सिद्धपरमेष्ठियोंका स्वरूप यहाँ कहा है ।