निरवशेषेणान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्ट- कर्मबंधाः । क्षायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्च । त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात् परमाः । त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकाग्रस्थिताः । व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्याय- प्रच्यवनाभावान्नित्याः । ईद्रशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति ।
त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात् ।
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ।।१०१।।
[भगवन्त सिद्ध कैसे होते हैं ? ] (१) १निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार, ध्यान -ध्येयके विकल्प रहित निश्चय - परमशुक्लध्यानके बलसे जिन्होंने आठ कर्मके बन्धको नष्ट किया है ऐसे; (२) २क्षायिक सम्यक्त्वादि अष्ट गुणोंकी पुष्टिसे तुष्ट; (३) विशिष्ट गुणोंके आधार होनेसे तत्त्वके तीन स्वरूपोंमें ३परम; (४) तीन लोकके शिखरसे आगे गतिहेतुका अभाव होनेसे लोकके अग्रमें स्थित; (५) व्यवहारसे अभूतपूर्व पर्यायमेंसे ( – पहले कभी नहीं हुई ऐसी सिद्धपर्यायमेंसे) च्युत होनेका अभाव होनेके कारण नित्य; — ऐसे, वे भगवन्त सिद्धपरमेष्ठी होते हैं ।
[अब ७२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] व्यवहारनयसे ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्धभगवान त्रिभुवनशिखरकी शिखाके (चैतन्यघनरूप) ठोस ४चूड़ामणि हैं; निश्चयसे वे देव सहजपरमचैतन्यचिन्तामणि- स्वरूप नित्यशुद्ध निज रूपमें ही वास करते हैं ।१०१। १ – निरवशेषरूपसे = अशेषत; कुछ शेष रखे बिना; सम्पूर्णरूपसे; सर्वथा । [परमशुक्लध्यानका आकार अर्थात्
२ – सिद्धभगवन्त क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु
३ – सिद्धभगवन्त विशिष्ट गुणोंके आधार होनेसे बहिस्तत्त्व, अन्तस्तत्त्व और परमतत्त्व ऐसे तीन तत्त्वस्वरूपोंमेंसे
४ – चूड़ामणि = शिखामणि; कलगीका रत्न; शिखरका रत्न ।