(स्रग्धरा)
नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ताः
तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धयै निरुपमविशदज्ञानद्रक्शक्ति युक्तान् ।
सिद्धान् नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान्
अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान् ।।१०२।।
(अनुष्टुभ्)
स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः ।
नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ।।१०३।।
पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा ।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति ।।७३।।
पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदर्पनिर्दलनाः ।
धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईद्रशा भवन्ति ।।७३।।
[श्लोेकार्थ : — ] जो सर्व दोषोंको नष्ट करके देहमुक्त होकर त्रिभुवनशिखर पर
स्थित हैं, जो निरुपम विशद ( – निर्मल) ज्ञानदर्शनशक्तिसे युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्मोंकी
प्रकृतिके समुदायको नष्ट किया है, जो नित्यशुद्ध हैं, जो अनन्त हैं, अव्याबाध हैं, तीन
लोकमें प्रधान हैं और मुक्तिसुन्दरीके स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धोंको सिद्धिकी प्राप्तिके हेतु
मैं नमन करता हूँ ।१०२।
[श्लोेकार्थ : — ] जो निज स्वरूपमें स्थित हैं, जो शुद्ध हैं; जिन्होंने आठ गुणरूपी
सम्पदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ कर्मोंका समूह नष्ट किया है, उन सिद्धोंको मैं पुनः
पुनः वन्दन करता हूँ ।१०३।
गाथा : ७३ अन्वयार्थ : — [पंचाचारसमग्राः ] पंचाचारोंसे परिपूर्ण, [पंचेन्द्रिय-
दंतिदर्प्पनिर्दलनाः ] पंचेन्द्रियरूपी हाथीके मदका दलन करनेवाले, [धीराः ] धीर और
[गुणगंभीराः ] गुणगंभीर; — [ईद्रशाः ] ऐसे, [आचार्याः ] आचार्य [भवन्ति ] होते हैं ।
१४२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
हैं धीर गुण गंभीर अरु परिपूर्ण पंचाचार हैं ।
पंचेन्द्रि - गजके दर्प - उन्मूलक निपुण आचार्य हैं ।।७३।।