अत्राचार्यस्वरूपमुक्त म् ।
ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधानैः पंचभिः आचारैः समग्राः । स्पर्शन-
रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्धसिंधुरदर्पनिर्दलनदक्षाः । निखिलघोरोपसर्गविजयो-
पार्जितधीरगुणगंभीराः । एवंलक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो ह्याचार्या इति ।
तथा चोक्तं श्रीवादिराजदेवैः —
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘पंचाचारपरान्नकिंचनपतीन्नष्टकषायाश्रमान्
चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन् ।
स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान्
अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्ति क्रियाचंचवः ।।’’
तथा हि —
टीका : — यहाँ आचार्यका स्वरूप कहा है ।
[भगवन्त आचार्य कैसे होते हैं ? ] (१) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य नामक
पाँच आचारोंसे परिपूर्ण; (२) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इन्द्रियोंरूपी
मदांध हाथीके दर्पका दलन करनेमें दक्ष ( – पंचेन्द्रियरूपी मदमत्त हाथीके मदको चूरचूर
करनेमें निपुण); (३ - ४) समस्त घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त करते हैं इसलिये धीर और
गुणगम्भीर; — ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, वे भगवन्त आचार्य होते हैं ।
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री वादिराजदेवने कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जो पंचाचारपरायण हैं, जो अकिंचनताके स्वामी हैं, जिन्होंने
कषायस्थानोंको नष्ट किया है, परिणमित ज्ञानके बल द्वारा जो महा पंचास्तिकायकी स्थितिको
समझाते हैं, विपुल अचंचल योगमें ( – विकसित स्थिर समाधिमें) जिनकी बुद्धि निपुण है
और जिनको गुण उछलते हैं, उन आचार्योंको भक्तिक्रियामें कुशल ऐसे हम भवदुःखराशिको
भेदनेके लिये पूजते हैं ।’’
और (इस ७३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १४३