स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् ।
निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः ।।१०४।।
[श्लोेकार्थ : — ] सकल इन्द्रियसमूहके आलम्बन रहित, अनाकुल, स्वहितमें लीन, शुद्ध, निर्वाणके कारणका कारण ( – मुक्तिके कारणभूत शुक्लध्यानका कारण), ❃
चन्द्रकीर्तिमुनिका निरुपम मन (चैतन्यपरिणमन) वंद्य है । १०४ ।
गाथा : ७४ अन्वयार्थ : — [रत्नत्रयसंयुक्ताः ] रत्नत्रयसे संयुक्त, [शूराः जिनकथितपदार्थदेशकाः ] जिनकथित पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और [निःकांक्षभावसहिताः ] निःकांक्षभाव सहित; — [ईद्रशाः ] ऐसे, [उपाध्यायाः ] उपाध्याय [भवन्ति ] होते हैं ।
टीका : — यह, अध्यापक (अर्थात् उपाध्याय) नामके परमगुरुके स्वरूपका कथन है ।
[उपाध्याय कैसे होते हैं ? ] (१) अविचलित अखण्ड अद्वैत परम चिद्रूपके ❃शम = शांति; उपशम । दम = इन्द्रियादिका दमन; जितेन्द्रियता । यम = संयम ।