Niyamsar (Hindi). Gatha: 75.

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जिनेन्द्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्तपदार्थसार्थोपदेशशूराः निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षण-
निरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्कांक्षाभावना-
सनाथाः
एवंभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति
(अनुष्टुभ्)
रत्नत्रयमयान् शुद्धान् भव्यांभोजदिवाकरान्
उपदेष्टॄनुपाध्यायान् नित्यं वंदे पुनः पुनः ।।१०५।।
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति ।।७५।।
व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः
निर्ग्रन्था निर्मोहाः साधवः ईद्रशा भवन्ति ।।७५।।
श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्ध निश्चय - स्वभावरत्नत्रयवाले; (२) जिनेन्द्रके
मुखारविंदसे निकले हुए जीवादि समस्त पदार्थसमूहका उपदेश देनेमें शूरवीर; (३) समस्त
परिग्रहके परित्यागस्वरूप जो निरंजन निज परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न होनेवाले
परम वीतराग सुखामृतके पानमें सन्मुख होनेसे ही निष्कांक्षभावना सहित;
ऐसे लक्षणोंसे
लक्षित, वे जैनोंके उपाध्याय होते हैं
[अब ७४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : ] रत्नत्रयमय, शुद्ध, भव्यकमलके सूर्य और (जिनकथित
पदार्थोंके) उपदेशकऐसे उपाध्यायोंको मैं नित्य पुनः पुनः वन्दन करता हूँ १०५
गाथा : ७५ अन्वयार्थ :[व्यापारविप्रमुक्ताः ] व्यापारसे विमुक्त (समस्त
व्यापार रहित), [चतुर्विधाराधनासदारक्ताः ] चतुर्विध आराधनामें सदा रक्त, [निर्ग्रन्थाः ]
निर्ग्रंथ और [निर्मोहाः ] निर्मोह;
[ईद्रशाः ] ऐसे, [साधवः ] साधु [भवन्ति ] होते हैं
अनुष्ठान = आचरण; चारित्र; विधान; कार्यरूपमें परिणत करना
निर्ग्रन्थ हैं निर्मोह हैं व्यापारसे प्रविमुक्त हैं
हैं साधु, चउआराधनामें जो सदा अनुरक्त हैं ।।७५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १४५