निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् ।
ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः
अत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः । ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा-
राधनासदानुरक्ताः । बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्त त्वान्निर्ग्रन्थाः । सदा निरञ्जन-
निजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्नि-
र्मोहाः च । इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमंतसीमाशोभामसृणघुसृणरजःपुंजपिंजरित-
वर्णालंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेऽपि साधवः इति ।
(आर्या)
भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात् ।
मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साधोः ।।१०६।।
टीका : — यह, निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरणमें निरत ( – लीन) ऐसे सर्व
साधुओंके स्वरूपका कथन है ।
[साधु कैसे होते हैं ? ] (१) परमसंयमी महापुरुष होनेसे त्रिकालनिरावरण निरंजन
परम पंचमभावकी भावनामें परिणमित होनेके कारण ही समस्त बाह्यव्यापारसे विमुक्त;
(२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त; (३)
बाह्य – अभ्यंतर समस्त परिग्रहके ग्रहण रहित होनेके कारण निर्ग्रंथ; तथा (४) सदा निरंजन
निज कारणसमयसारके स्वरूपके सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरणसे
प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्रका अभाव होनेके कारण निर्मोह;
— ऐसे, परमनिर्वाणसुन्दरीकी सुन्दर माँगकी शोभारूप कोमल केशरके रज - पुंजके सुवर्णरंगी
अलङ्कारको ( – केशर - रजकी कनकरंगी शोभाको) देखनेमें कौतूहलबुद्धिवाले वे समस्त
साधु होते हैं (अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाले, मुक्तिसुन्दरीकी अनुपमताका अवलोकन करनेमें
आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं ) ।
[अब ७५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] भववाले जीवोंके भवसुखसे जो विमुख है और सर्व संगके
सम्बन्धसे जो मुक्त है, ऐसा वह साधुका मन हमें वंद्य है । हे साधु ! उस मनको शीघ्र
निजात्मामें मग्न करो ।१०६।
१४६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-