एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं ।
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि ।।७६।।
ईद्रग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम् ।
निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ।।७६।।
व्यवहारचारित्राधिकारव्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम् ।
इत्थंभूतायां प्रागुक्त पंचमहाव्रतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यान-
संयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभावनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति,
वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतुभूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्टव्यं
भवतीति ।
तथा चोक्तं मार्गप्रकाशे —
गाथा : ७६ अन्वयार्थ : — [ईद्रग्भावनायाम् ] ऐसी (पूर्वोक्त) भावनामें
[व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयके अभिप्रायसे [चारित्रम् ] चारित्र [भवति ] है;
[निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके अभिप्रायसे [चरणम् ] चारित्र [एतदूर्ध्वम् ] इसके पश्चात्
[प्रवक्ष्यामि ] कहूँगा ।
टीका : — यह, व्यवहारचारित्र-अधिकारका जो व्याख्यान उसके उपसंहारका
और निश्चयचारित्रकी सूचनाका कथन है ।
ऐसी जो पूर्वोक्त पंचमहाव्रत, पंचसमिति, निश्चय - व्यवहार त्रिगुप्ति तथा
पंचपरमेष्ठीके ध्यानसे संयुक्त, अतिप्रशस्त शुभ भावना उसमें व्यवहारनयके अभिप्रायसे
परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकारमें, परम पंचमभावमें लीन,
पंचमगतिके हेतुभूत, शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य ( – देखनेयोग्य) है ।
इसीप्रकार मार्गप्रकाशकमें (श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
कहानजैनशास्त्रमाला ]व्यवहारचारित्र अधिकार[ १४७
इस भावनामें जानिये चारित्र नय व्यवहारसे ।
निश्चय-चरण अब मैं कहूँ निश्चयनयात्मक द्वारसे ।।७६।।