भवेद्विना येन सुद्रष्टिबोधनम् ।
नमामि जैनं चरणं पुनः पुनः ।।’’
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव- विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ व्यवहारचारित्राधिकार: चतुर्थः श्रुतस्कन्धः ।।
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जिसके बिना ( – जिस चारित्रके बिना) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठारके भीतर पड़े हुए बीज ( – अनाज) समान हैं, उसी देव - असुर - मानवसे स्तवन किये गये जैन चरणको ( – ऐसा जो सुर - असुर - मनुष्योंसे स्तवन किया गया जिनोक्त चारित्र उसे) मैं पुनः पुनः नमन करता हूँ ।’’
और (इस व्यवहारचारित्र अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] आचार्योंने शीलको ( – निश्चयचारित्रको) मुक्तिसुन्दरीके अनंग ( – अशरीरी) सुखका मूल कहा है; व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है ।१०७।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें) व्यवहारचारित्र अधिकार नामका चौथा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।