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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
(वंशस्थ)
नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये
स्मरेभकुंभस्थलभेदनाय वै ।
विनेयपंकेजविकाशभानवे
विराजते माधवसेनसूरये ।।१०८।।
अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयनयात्मकपरमचारित्र-
प्रतिपादनपरायणपरमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते । तत्रादौ तावत् पंचरत्नस्वरूपमुच्यते ।
तद्यथा —
अथ पंचरत्नावतारः ।
[अधिकारके प्रारम्भमें टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्री माधवसेन
आचार्यदेवको श्लोक द्वारा नमस्कार करते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] संयम और ज्ञानकी मूर्ति, कामरूपी हाथीके कुम्भस्थलको
भेदनेवाले तथा शिष्यरूपी कमलको विकसित करनेमें सूर्य समान — ऐसे हे विराजमान
(शोभायमान) माधवसेनसूरि ! आपको नमस्कार हो । १०८ ।
अब, सकल व्यावहारिक चारित्रसे और उसके फलकी प्राप्तिसे प्रतिपक्ष ऐसा जो
शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र उसका प्रतिपादन करनेवाला परमार्थ - प्रतिक्रमण अधिकार
कहा जाता है । वहाँ प्रारम्भमें पंचरत्नका स्वरूप कहते हैं । वह इसप्रकार :
अब पाँच रत्नोंका अवतरण किया जाता है : —