(मालिनी)
‘‘अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।’’
तथा हि —
(आर्या)
अतितीव्रमोहसंभवपूर्वार्जितं तत्प्रतिक्रम्य ।
आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन् ।।१११।।
आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८४।।
आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।।८४।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] अधिक कहनेसे तथा अधिक दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस
होओ; यहाँ इतना ही कहना है कि इस परम अर्थका एकका ही निरन्तर अनुभवन करो;
क्योंकि निज रसके विस्तारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार
( – परमात्मा) उससे ऊँ चा वास्तवमें अन्य कुछ भी नहीं है ( – समयसारके अतिरिक्त अन्य
कुछ भी सारभूत नहीं है ) ।’’
और (इस ८३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] अति तीव्र मोहकी उत्पत्तिसे जो पूर्वमें उपार्जित (कर्म) उसका
प्रतिक्रमण करके, मैं सद्बोधात्मक (सम्यग्ज्ञानस्वरूप) ऐसे उस आत्मामें आत्मासे नित्य
वर्तता हूँ ।१११।
गाथा : ८४ अन्वयार्थ : — [विराधनं ] जो (जीव) विराधनको [विशेषेण ]
१५८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
छोड़े समस्त विराधना आराधनारत जो रहे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण उसको ही कहें ।।८४।।