स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु ।
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।’’
नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः ।
भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः ।।११२।।
श्री समयसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें भी (१८७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] सापराध आत्मा निरंतर अनन्त (पुद्गलपरमाणुरूप) कर्मोंसे बँधता है; निरपराध आत्मा बन्धनको कदापि स्पर्श ही नहीं करता । जो सापराध आत्मा है वह तो नियमसे अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है; निरपराध आत्मा तो भलीभाँति शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है ।’’
और (इस ८४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें जो जीव परमात्मध्यानकी संभावना रहित है (अर्थात् जो जीव परमात्माके ध्यानरूप परिणमनसे रहित है — परमात्मध्यानरूप परिणमित नहीं हुआ है ) वह भवार्त जीव नियमसे सापराध माना गया है; जो जीव निरंतर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्यभावसे युक्त है वह कर्मसंन्यासदक्ष ( – कर्मत्यागमें निपुण) जीव निरपराध है ।११२।