स्फु रितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा ।
स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः ।।११३।।
स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहजानंदद्रग्ज्ञप्तिशक्तौ ।
सोऽयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी ।।११४।।
[अब इस ८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा निज परमानन्दरूपी अद्वितीय अमृतसे गाढ़ भरे हुए, १स्फु रित - सहज - ज्ञानस्वरूप आत्माको निर्भर ( – भरपूर) आनन्द - भक्तिपूर्वक निज शममय जल द्वारा स्नान कराओ; बहुत लौकिक आलापजालोंसे क्या प्रयोजन है (अर्थात् अन्य अनेक लौकिक कथनसमूहोंसे क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ) ? ११३।
[श्लोकार्थ : — ] जो आत्मा जन्म - मरणके करनेवाले, सर्व दोषोंके २प्रसंगवाले अनाचारको अत्यन्त छोड़कर, निरुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले आत्मामें आत्मासे स्थित होकर, बाह्य आचारसे मुक्त होता हुआ, शमरूपी समुद्रके जलबिन्दुओंके समूहसे पवित्र होता है, ऐसा वह पवित्र पुराण ( – सनातन) आत्मा मलरूपी क्लेशका क्षय करके लोकका उत्कृष्ट साक्षी होता है ।११४। १ – स्फु रित = प्रगट । २ – प्रसंग = संग; सहवास; सम्बन्ध; युक्तता ।