Niyamsar (Hindi). Gatha: 86.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(मालिनी)
अथ निजपरमानन्दैकपीयूषसान्द्रं
स्फु रितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा
निजशममयवार्भिर्निर्भरानंदभक्त्या
स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः
।।११३।।
(स्रग्धरा)
मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जननमृतकरं सर्वदोषप्रसंगं
स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहजानंद
द्रग्ज्ञप्तिशक्तौ
बाह्याचारप्रमुक्त : शमजलनिधिवार्बिन्दुसन्दोहपूतः
सोऽयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी
।।११४।।
उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८६।।

[अब इस ८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] आत्मा निज परमानन्दरूपी अद्वितीय अमृतसे गाढ़ भरे हुए, स्फु रित - सहज - ज्ञानस्वरूप आत्माको निर्भर (भरपूर) आनन्द - भक्तिपूर्वक निज शममय जल द्वारा स्नान कराओ; बहुत लौकिक आलापजालोंसे क्या प्रयोजन है (अर्थात् अन्य अनेक लौकिक कथनसमूहोंसे क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ) ? ११३

[श्लोकार्थ : ] जो आत्मा जन्म - मरणके करनेवाले, सर्व दोषोंके प्रसंगवाले अनाचारको अत्यन्त छोड़कर, निरुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले आत्मामें आत्मासे स्थित होकर, बाह्य आचारसे मुक्त होता हुआ, शमरूपी समुद्रके जलबिन्दुओंके समूहसे पवित्र होता है, ऐसा वह पवित्र पुराण (सनातन) आत्मा मलरूपी क्लेशका क्षय करके लोकका उत्कृष्ट साक्षी होता है ११४ स्फु रित = प्रगट प्रसंग = संग; सहवास; सम्बन्ध; युक्तता

उन्मार्गका कर परित्यजन जिनमार्गमें स्थिरता करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८६।।